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उच्च शिक्षा में… लेटलतीफी से पार पाएं तो बजे दुनिया में डंका 

Published: Jul 05, 2017 11:51:00 am

विश्वविद्यालय प्रशासकों, नीति नियंताओं और शिक्षाविदों के बीच वर्षों से हायर एजुकेशन सिस्टम में मौलिक बदलाव पर बहस जारी है। इस दिशा में केंद्र ने जो कदम उठाए हैं, एक तबका उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ है।

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आईबीएम के ताजा अध्ययन के बाद कि हायर एजुकेशन सिस्टम में वैश्विक जरूरतों और घरेलू बाजार के हिसाब से मौलिक स्तर पर नीतिगत बदलाव जरूरी है, इस बहस ने एक बार फिर जोर पकड़ ली है। इसके अनुसार औद्योगिक जरूरतों के हिसाब से नवाचार व प्रबंधकीय आयामों को पाठ्यक्रमों का अहम हिस्सा बनाना होगा, तभी हम वैश्विक चुनौतियों का सामना कर पाएंगे। 



कमजोर हायर एजुकेशन सिस्टम 
हाल ही में आईबीएम स्टडी ऑफ बिजनेस वैल्यू ने सर्वे का काम इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट के सहयोग से पूरा किया गया है। इसका मकसद हायर एजुकेशन सिस्टम के सामने वैश्विक चुनौतियां, कमजोर अकादमिक नेतृत्व, वरिष्ठ शिक्षकों की सम-सामयिक उपयोगिता कम होना, कॉरपोरेट भर्ती व लर्निंग टूल्स व अकादमिक नवाचार के स्तर को जानना था। इसमें 61 प्रतिशत लोग भारतीय हायर एजुकेशन सिस्टम को सामाजिक व कॉरपोरेट जरूरतों को पूरा न करने वाला कमजोर प्रणाली मानते हैं। 59 प्रतिशत भारत में शिक्षा की प्रासंगिकता को बनाए रखने के काम को दुरूह, 56 प्रतिशत महंगी शिक्षा, 54 प्रतिशत उच्च शिक्षा, उद्योग और नवाचार के बीच तालमेल का अभाव और 52 प्रतिशत लोग मानते हैं कि बदलाव में लिए जरूरी संसाधनों का सख्त अभाव है। इसलिए बदलाव वक्त की मांग है। 



छात्रों के लिए अलाभकारी व्यवस्था 
52 प्रतिशत नवाचार प्रोफेशनल्स का कहना है कि नवाचार व कौशल दक्षता के पैमाने पर छात्रों के लिए वर्तमान शिक्षा प्रणाली अनुपयोगी है। 37 प्रतिशत ने उद्योग व 35 प्रतिशत सामाजिक आवश्यकताओं पूरा नहीं करने वाला करार दिया। 



लेने होंगे दूरगामी निर्णय 
वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ दशक में शिक्षा के हर क्षेत्र के पाठ्यक्रमों में बहुआयामी बदलाव हुए हैं। पश्चिमी और यूरोपीय देशों सहित आसियान देशों ने उसी अनुरूप हायर एजुकेशन सिस्टम को बदलने में सफलता हासिल की है। इसका लाभ वहां के युवाओं को ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर मिल रहा है। लेकिन भारतीय हायर एजुकेशन सिस्टम में क्रांतिकारी बदलाव न होने से हमारे युवा ग्लोबल स्तर पर व्याप्त अवसरों का लाभ पूरी तरह से उठा नहीं पा रहे हैं। 



पीपीपी जरूरी क्यों 
आईबीएम के इंडिया और दक्षिण एशिया के उपाध्यक्ष डीपी सिंह का कहना है कि अकादमिक शिक्षण संस्थानों व कॉरपोरेट सेक्टर्स के बीच सहभागिता जरूरी है। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में पाठ्यक्रमों में बदलाव की जरूरत है, ताकि औद्योगिक और सामाजिक जरूरतों के साथ वैश्विक जरूरतों का सामना भारतीय युवा कर सकें। 



कॉरपोरेट लॉबी का बढ़ा दबाव 
कॉरपोरेट सेक्टर्स के लोगों का जोर पाठ्यकमों में नवाचार को प्राथमिक स्तर पर शामिल कराने पर है, ताकि व्यावसायिक दक्षता, मेंटरशिप, जरूरी प्रशिक्षण, इंडस्ट्री एक्सपोजर का लाभ युवाओं को मिले। कॉरपोरेटर्स का कहना है कि व्हाइट, ब्लू और न्यू कॉलर जॉब के बीच व्याप्त अंतरालों को दूर करने की भी जरूरत है, क्योंकि ये सोच नवाचार की राह में बड़ी बाधा है। इस वजह से प्रभावी तरीके से टैलेंट हंट और प्रमोशन का काम नहीं हो पा रहा है। 



एक राष्ट्रीय शिक्षा नीति की जरूरत
डिलॉयट के निदेशक रोहिन कपूर का कहना है कि कॉरपोरेट सेक्टर्स नवाचार कौशल विकास के बल पर वल्र्ड क्लास के क्षेत्र में अहम भूमिका निभा सकता है। सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाने की घोषणा की है। पिछले तीन वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिवर्तन पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन इसमें और तेजी लाने की जरूरत है। 



एक्पट्र्स ओपिनियन : वैश्विक जरूरतों के अनुरूप हो शिक्षा में बदलाव


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केन्द्रीय विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश के वीसी डॉ. कुलदीप अग्निहोत्री का कहना है कि पाठ्यक्रमों में बदलाव की प्रक्रिया रोकना संभव नहीं है। हां, यह ध्यान रखना होगा कि बदलाव पक्षाघात का शिकार न हो। शिक्षा के मूल उद्देश्य व व्यावहारिकता में तालमेल बना रहे। भारत में सैकड़ों वर्षों तक गुलामी की वजह से यह गति रुक गई थी, जिसे आगे बढ़ाने की जरूरत है। आईबीएम की रिपोर्ट प्रासंगिकता के लिहाज से सही है। शिक्षा संस्थानों को कॉरपोरेट जगत की जरूरतों को समझना होगा, क्योंकि उनका करियर निर्माण तभी होगा, जब उच्च शिक्षा ग्लोबल डिमांड्स के अनुरूप हो। 

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