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इमाम हुसैन की शहादत की याद में मनाया जाता है Muharram, जानें पूरा इतिहास

locationनई दिल्लीPublished: Aug 29, 2020 06:38:35 pm

Submitted by:

Mazkoor

Imam Hussain करबला की जंग में अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए थे। इसलिए इस महीने को गम के महीने के रूप में मनाया जाता है।

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नई दिल्ली : मोहर्रम (Muharram) इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। इसी महीने से नया साल शुरू होता है। इस महीने की 10 तारीख को रोज-ए-आशूरा (Ashura) कहा जाता है। इस बार इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से यह 29 अगस्त शनिवार यानी आज है। यह दिन इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से बेहद अहम है। इसी दिन हजरत इमाम हुसैन (Imam Hussain) करबला की जंग में अपने 72 साथियों के साथ शहीद हो गए थे। इसलिए इस महीने को गम के महीने के रूप में मनाया जाता है और उनकी शहादत की याद में ही ताजिया और जुलूस निकाले जाते हैं।

कोरोना महामारी के कारण नहीं निकलेंगे जुलूस और ताजिया

कोरोना वायरस (Coronavirus) महामारी के कारण इस बार मोहर्रम के तमाम तरह के आयोजनों पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया है। इस कारण देश के किसी भी हिस्से में आज के दिन ताजिया और जुलूस नहीं निकला। लोगों ने इस मातम का त्योहार अपने घर में ही मनाया। आज आशूरा के दिन भी कहीं से जुलूस नहीं निकलेगा। मोहर्रम के नौ और 10 तारीख को लोग रोजा रखते हैं।

यह है ताजिया का इतिहास

इराक में इमाम हुसैन का रौजा-ए-मुबारक ( दरगाह ) है। लोग इसी की नकल बनाते हैं। इसे ही ताजिया कहते हैं। ताजियादारी दस मोहर्रम को इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शाहदत की याद में की जाती है। मोहर्रम की पहली तारीख को ही ताजिया रखा जाता है और उसे 10 मोहर्रम को कर्बला में दफन कर दिया जाता है। इस दिन की याद में लोग जुलूस निकालते हैं और उस जंग को याद करते हैं।

कर्बला की जंग

आज से करीब 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में करबला की जंग हुई थी। यह हक और इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस्लाम धर्म के पवित्र मदीना शहर से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया के निधन के बाद शाही वारिस के रूप में इस गद्दी पर जबरदस्ती यजीद बैठ गया। वह डिक्टेटर था और अच्छा शासक नहीं था। उसके भीतर तमाम तरह की बुराइयां थी। इसी कारण वहां के लोग यजीद की मकबूलियत वहां नहीं थी। इस कारण यजीद चाहता था कि इमाम हुसैन यह पुष्टि करें कि यजीद अब उनका शासक है। इमाम हुसैन मोहम्मद साहब के नवासे हैं और वह काफी प्रभावशाली और अच्छे व्यक्ति थे। इसलिए वहां के लोग उन्हें बहुत मानते थे। लेकिन इमाम हुसैन ने उन्हें शासक मानने से इनकार कर दिया। क्योंकि यजीद के लिए मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। इसके बाद यजीद के साथ टकराव को टालने के लिए उन्होंने तय किया कि वह अपने कुछ लोगों के साथ मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां अमन बना रहे।

यजीद ने पीछाकर घेर लिया

इमाम हुसैन मदीना छोड़ अपने परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक जा रहे थे। यजीद को पता चला तो उसकी फौज ने पीछा कर करबला के पास उनके काफिले को घेर लिया और यजीद ने उनके सामने फिर वही शर्त रखी कि वह उन्हें शासक मानें और इसका ऐलान भी करें। इमाम हुसैन ने एक बार फिर इसे मानने से इनकार कर दिया। शर्त न मानने पर यजीद ने जंग करने को कहा और उनका रास्ता रोक दिया। तब इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने को कहा और उन्हें नदी से पानी तक नहीं दिया।

इमाम हुसैन जंग आखिर तक टालना चाहते थे जंग

इमाम हुसैन किसी हाल में जंग नहीं चाहते थे। जंग टालने के लिए ही वह मदीना छोड़कर जा रहे थे। उनके काफिले में सिर्फ 72 लोग शामिल थे। इसमें भी उनका छह माह का बेटा, उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे भी शामिल थे। यह मोहर्रम की एक तारीख थी और गर्मी का वक्त था। इराक में यूं ही गर्मी काफी ज्यादा पड़ती है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास खाना और पानी खत्म हो चुका था। फिर भी वह जंग को टालते रहे और 7 से 10 मोहर्रम तक इमाम हुसैन के काफिले में मौजूद सभी भूखे-प्यासे रहे।

अंत में सभी शहीद हो गईं

लगातार भूख-प्यास से बेहाल इमाम हुसैन के काफिले के पास अब कोई दूसरा उपाय नहीं बचा था। यजीद की फौज ने उन्हें चारों तरफ से घेर रखा था। इसलिए अब उनके पास जंग के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा था। आखिरकार 10 मोहर्रम को एक-एक कर इमाम हुसैन के काफिले के लोगों ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी मारे गए, तब इमाम हुसैन जंग के लिए गए और वह भी शहीद हो गए। इस जंग में इमाम हुसैन का सिर्फ एक बेटा जैनुल आबेदीन जिंदा बच गए थे। इसी कुरबानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है।

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