कोरोना महामारी के दौर में यह पहली बार है, जब इतने बड़े पैमाने पर चुनाव आयोजित हो रहा है। वैसे, अब तक की तैयारियों और उनके क्रियान्वयन को उदाहरण मानें तो ज्यादातर डिजिटल स्वरूप में हुई प्रक्रियाएं सफल रही हैं। माना जा रहा है कि चुनाव आयोग की तरफ से इस बार जो मजबूत अभियान डिजाइन किया गया है, उस पर सभी सहमत दिख रहे हैं, क्योंकि सवाल किसी ने भी अभी तक खड़े नहीं किए। फिर भी, आगे यह विवादास्पद मुद्दा होगा या नहीं, इस पर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी।
हालांकि, यह भी सही है कि बिहार में कोरोना महामारी के बीच चुनाव आयोजित किए जाने को लेकर शुरू में आपत्ति जताई जा चुकी है। इस संबंध में पटना हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट में दो याचिकाएं भी दायर हुईं, मगर दोनों ही कोर्ट ने याचिकाओं को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि चुनाव आयोग निष्पक्ष और सुरक्षित चुनाव आयोजित करने केे लिए सभी जरूरी कदम उठाएगा।
इसके ठीक बाद चुनाव आयोग ने इस बड़े अभियान को आयोजित करने को लेकर पूरी तैयारियों की गाईडलाइन जारी की। गाईडलाइन में इस बार क्या करना है और क्या नहीं, क्या नया होगा और किन ऐसी प्रक्रियाओं को प्रतिबंधित कर दिया गया, जो कोरोना संकट में सुरक्षित नहीं थीं, की पूरी फेहरिस्त है।
दरअसल, चुनाव अभियान लोकतंत्र का दिल है और यही केंद्र बिंदु है। सूचना प्रौद्योगिकी के इस व्यापक दौर में राजनीतिक अभियानों ने नया आयाम हासिल किया है। इसका पूरा फायदा इस चुनाव में होता दिख भी रहा है। तमाम राजनीतिक दल और नेता इस बार चुनाव प्रचार के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का जमकर उपयोग कर रहे हैं। इस तरह, यह चुनाव राजनीतिक दलों के कई परंपरागत और जमीनी प्रचार से अलग दिखाई दे रहा है।
डिजिटल प्रचार का यह दौर एक नए युग का न सिर्फ गवाह माना जा रहा है बल्कि, एक सफल शुरुआत भी कहा जा सकता है। हां, कौन इस डिजिटलाइजेशन का भरपूर लाभ लेने में सफल होगा, यह अभी कहना मुश्किल है, क्योंकि ज्यादातर छोटी पार्टियां अभी इस नए प्लेटफॉर्म पर सक्रिय नहीं हुई, जिसका नुकसान उन्हें हो सकता है। गत जुलाई की शुरुआत में विभिन्न राजनीतिक दलों (राजद, वीआईपी, लोकतांत्रिक जनता दल और दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां) ने मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा को एक ज्ञापन सौंपा था। इसमें इन राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों ने बिहार चुनाव में डिजिटल चुनाव प्रचार की तमाम विसंगतियों को लेकर अपनी चिंताओं से अवगत कराया था। मगर कोई पुख्ता बात इस पर नहीं हो सकी।
इस चुनाव में सिर्फ भाजपा ने अभी तक सोशल मीडिया का जमकर उपयोग किया है और यही पार्टी अपने पूर्व के अनुभवों और तैयारियों का जमकर फायदा उठा रही है। भाजपा ने बिहार चुनाव में डिजिटल प्रचार अभियान के लिए अपनी पार्टी में भी बड़े पैमाने पर साधन-संसाधन जुटाए हैं। इसमें नियुक्तियां और बजट दोनोंं शामिल हैं। पार्टी से जुड़े सूत्रों की मानें तो करीब 9 हजार 5 सौ आईटी विशेषज्ञों की नियुक्ति हुई है, जो करीब साढ़े पांच हजार मंडल और 72 हजार बूथों तक सक्रिय रहेंगे। इसमें मंडल स्तर पर आईटी सेल प्रमुख बनाए गए हैं, जो बूथ स्तर तक रैली के वीडियो और भाषणों को प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। पार्टी ने फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप के करीब 50 हजार ग्रुप बनाए हैं।
वैसे, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) भी इस चुनाव में अपनी डिजिटल उपस्थिति से संतुष्ट दिख रही है। यह बात अलग है कि नीतीश के अलावा दूसरा कोई बड़ा चेहरा अभी तक इस बड़े प्लेटफॉर्म पर ज्यादा सक्रिय नहीं है। नीतीश कुमार के ट्विटर अकाउंट पर करीब 6 करोड़ 10 लाख फॉलोअर्स हैं। नीतीश कुमार अपनी सरकार में हुए कार्यों का प्रचार-प्रसार और चुनावी वादों तथा मुद्दों को बताने के लिए इस मंच का अच्छा उपयोग कर रहे हैं।
दूसरी तरफ, महागठबंधन के दो प्रमुख दल राजद और कांग्रेस भी चुनावी रणक्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और मतदाताओं से जुडऩे के लिए सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर रहे हैं। राजद नेता और महागठबंधन से मुख्यमंत्री पद का चेहरा तेजस्वी यादव के ट्विटर पर करीब ढाई करोड़ फॉलोअर हैं। अपने फेसबुक अकाउंट पर भी वह काफी सक्रिय हैं। राजद ने भी जिला और बूथ स्तर पर व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए नेटवर्क स्थापित किया है। बिहार के कांग्रेस नेताओं का सोशल मीडिया पर भी दायरा उतना बड़ा नहीं है, मगर केंद्रीय स्तर पर इस दूरी को पाटने की कोशिश की जा रही है।
कई और छोटे दल सोशल मीडिया पर प्रचार की लड़ाई में पिछड़ रहे हैं, लेकिन देखा जाए तो यह चुनाव सोशल मीडिया की प्रभावशीलता को लेकर उनके लिए एक सबक भी होगा। वैसे सच यह भी है कि जिन लोगों के पास बजट और संसाधन हैं, उनकी सोशल मीडिया पर पहुंच अच्छी है।
देश में ज्यादातर चुनावों के लिए राजनीतिक अभियानों को संचालित करने में ट्विटर और फेसबुक काफी हद तक जिम्मेदार रहा है। हालांकि, बिहार में ग्रामीण मतदाता फेसबुक और व्हाट्सएप से ज्यादा प्रभावित हैं। मतदाता, सोशल मीडिया पर राजनेताओं की ओर से दिए जा रहे भाषणों और वीडियों को सुनते और देखते हुए आकलन रहे हैं। हालांकि, उनकी दिलचस्पी अपने क्षेत्रों में सडक़, पुल और विकास से जुड़े दूसरे कार्यों को लेकर ज्यादा है।
इन सबके बावजूद डिजिटल पर कहां, किसकी और कितनी पहुंच है, यह ज्यादा मायने रखता है। देखा जाए तो बिहार में करीब 30 प्रतिशत लोग ही स्मार्ट फोन रखे हुए हैं। इनमें ज्यादातर युवा हैं, जो स्मार्ट फोन का भरपूर उपयोग करते हैं और सोशल मीडिया तक पहुंच सबसे ज्यादा इन्हीं की है। इसमें भी किस जाति से जुड़े लोग ज्यादा सक्रिय होंगे, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिए।
इसके विपरित बिहार की करीब 88 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाके में रहती है। शायद इसलिए भी डिजिटल की दूरी को खत्म करने के लिए सभी राजनीतिक दलों ने प्रचार और जमीनी स्तर पर भी अपनी पहुंच बरकरार रखी है। कुल मिलाकर यह कहना गलत नहीं होगा कि कोरोना संकट के बीच, बिहार का यह चुनाव डिजिटल और गैर डिजिटल की सीमाओं को खत्म करने की कोशिश का बेहतर उदाहरण है।