हनुमंथप्पा ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए हुबली के कॉलेज में दाखिला लिया ही था कि दो हफ्ते बाद उनकी सेना में नौकरी लग गई।
बेट्टदूर गांव से करीब 15 किमी दूर शिरूर गांव में 1 जून, 1982 को हनुमंथप्पा का जन्म हुआ। वे जब पांच माह के थे तो पिता का निधन हो गया। जन्म के कुछ दिनों बाद ही हनुमंथप्पा को चिकनपॉक्स हुआ। घरेलू उपचार के साथ परिजनों की सलाह पर उन्हें पास के हनुमान मंदिर ले गए। हनुमानजी के आशीर्वाद से वे जब स्वस्थ हुए तो उनका नाम हनुमंथप्पा रख दिया गया। हनुमंथप्पा ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए हुबली के कॉलेज में दाखिला लिया ही था कि दो हफ्ते बाद उनकी सेना में नौकरी लग गई।
बचपन में ही पिता का साया उठ जाना…देश के लिए मर-मिटने की धुन… फिर सेना में भर्ती होना… सियाचिन में छह दिन तक बर्फ में दबे रहना… जज्बे-जोश-योग के बूते जिंदा निकलना, फिर मौत से जंग लड़ते हुए शहीद हो जाना। यही कहानी है देशभक्त लांस नायक हनुमंथप्पा कोप्पद की। जब हुबली (कर्नाटक) से करीब 20 किमी दूर बेट्टदूर गांव में शहीद हनुमंथप्पा की मां बसव्वा से बेटे का जिक्र हुआ तो उनकी आंखों से आंसू छलक आए लेकिन गर्व की चमक बरकरार रही। मां ने अपने वीर बेटे की जीवनयात्रा को यूं बयां किया।
मजदूरी कर खरीदीं किताबें
रुंधे गले से मां ने बताया कि हनुमंथप्पा के जन्म के पहले से ही परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। खेती से गुजारा न चलने के कारण परिवार के अधिकतर सदस्य बंधुआ मजदूरी करते थे। पिता की मृत्यु के बाद एक बहन व तीनों भाई मजदूरी कर परिवार की गाड़ी खींचने लगे, लेकिन हालात नहीं सुधरे। सेना में नौकरी लगने से पहले अपनी पढ़ाई के दौरान हनुमंथप्पा शनिवार व रविवार को मजदूरी करने जाता। जो पैसे मिलते वह उससे किताबें आदि खरीदता। पढ़ाई जारी रखने के लिए उसने हुबली में एक प्राइवेट कंपनी में तीन-चार माह के लिए नौकरी भी की।
‘मां तू चिंता मत कर…
गरीबी की वजह से उसने कभी बड़े सपने नहीं देखे। आर्थिक तंगी के चलते सूदखोरों का कर्ज हमेशा चढ़ा रहा। खेत भी गिरवी रखा था लेकिन वो हमेशा कहता -‘मां तू चिंता मत कर, नौकरी लगते ही सबसे पहले मैं खेत छुड़वाऊंगा और इसके बाद ही पक्का घर बनवाऊंगा। जैसे ही नौकरी लगी उसने सबसे पहले गिरवी रखा खेत छुड़वाया और फिर लांसनायक बनने तक पक्के घर का सपना पूरा कर दिया।
चाहत जो रह गई अधूरी
उसका सपना था कि उसका घर दूध के कारोबार से जुड़े ताकि परिवार किसी पर आश्रित न रहे। उसके रिटायर होने में चार वर्ष बाकी थे। वह कहता था कि रिटायरमेंट के बाद गाय पालकर दूध का कारोबार करेगा लेकिन चाहत अधूरी रह गई।
वर्दी है गर्व का प्रतीक
हनुमंथप्पा की अंतिम निशानियां अभी परिवार को सेना की ओर से नहीं मिल पाई हैं। उसकी एक वर्दी ही घर में है जो परिवार और उसके शुभचिंतकों के लिए गर्व का प्रतीक है।