8 JAK राइफल्स के अलावा दो अन्य बटालियन्स ने भी इस काम में उनकी मदद की। ब्रिगेड कमांडर ने अगला आदेश माइन्स को ट्रक में ही आर्म करने का दिया। हालांकि आमतौर पर माइन को पिट में डालने के बाद उसे आर्म किया जाता है। इस काम के लिए ब्रिगेड कमांडर द्वारा सेकेंड लेफ्टिनेंट जयंत सरनजमे को चुनने के पीछे का कारण कमांडर का लेफ्टिनेंट सरनजमे पर अटूट भरोसा था। युवा सरनजमे कुछ ही महीने पहले हजारों लैंड माइन्स को लगा और निकाल चुके थे। उनका माइन्स को लेकर बहुत तजुर्बा था। उस रात 10 ट्रकों में 8000 लैंड माइन्स को लोड किया गया।
सेकेंड लेफ्टिनेंट सरनजमे और उनके 61 जवानों ने अपनी जान को जोखिम में डालते हुए एक्टिवेटेड लैंड माइन्स से लदे उन ट्रकों में अपनी यात्रा शुरू की। स्याह अंधेरी रात में ट्रक सियालकोट की तरफ बढ़ने लगा। मिलिट्री के ड्राइवर्स ने बिना हेडलाइट जलाए उन लोडेड ट्रकों को बड़ी कुशलता से मैदान के रास्ते से निकाला। इस मूवमेंट को छिपाने के लिए ट्रकों की पार्किंग लाइट को भी बंद कर दिया गया था। आर्मी ट्रकों के टायर प्रेशर को इस तरह से मैनेज किया गया था कि ट्रक उछलें ना जिससे उनमें रखी माइन्स फटकर भीषण दुर्घटना का कारण ना बनें।
सब कुछ प्लान के मुताबिक ही हुआ और सारी टीमें अपनी-अपनी मंजिल पर पहुंच गईं जिससे लैंड माइन्स को लगाने का काम आधी रात से एक घंटे पहले ही निपट गया। इस वक्त तक दुश्मन भी सतर्क होता दिख रहा था। पाकिस्तानी आर्मी ने मोर्टार दागने शुरू कर दिए थे। मशीन गन की फायरिंग, बमों का फटना, गोलियां हर तरफ बस धमाकों का ही शोर था. ऐसा लग रहा था जैसे घड़ी रोज से कुछ ज्यादा ही तेज टिक-टिक कर रही थी। मानों पैरों के नीचे से रेत फिसलती जा रही थी। ऐसी परिस्थितियों में किसी आम इंसान का दिल तो दोगुनी तेजी से धड़कने लगता लेकिन ऐसे हालात से निपटने के लिए ट्रेंड किए गए सेकेंड लेफ्टिनेंट जयंत सरनजमे अपने जवानों के साथ तीन ग्रुप में बंटकर शांत लेकिन तेज रफ्तार और पूरे कौशल के साथ एक के बाद एक गढ्ढों में लैंड माइन बिछा रहे थे।
जयंत के साहस का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस रात उन्होंने अपने जवानों के साथ दुश्मन के खेमे से महज 1500 मीटर की दूरी तक माइन्स बिछा डाली थीं और दुश्मन को कानों कान खबर नहीं हो पाई थी। लेफ्टिनेंट जयंत ने बड़ी होशियारी से इस काम में पेड़ों की सूखी पत्तियों की मदद ली और पक्की सड़क पर भी लैंड माइन बिछाकर उसे सूखी पत्तियों से ढक दिया। अपने इस काम के लिए उन्हें 1966 में गैलेंट्री अवॉर्ड सेना मेडल से नवाजा गया, लेकिन आज भी उनकी वीरता किसी अनसुनी दास्तान की तरह है।