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अब 5 जजों की पीठ तय करेगी, समलैंगिकता अपराध है या नहीं

Published: Feb 02, 2016 05:01:00 pm

उच्चतम न्यायालय समलैंगिकता को अपराध ठहराने या न ठहराने के मुद्दे पर आज दोपहर तीन बजे खुली अदालत में सुनवाई करेगा

Supreme Court

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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 पर अहम सुनवाई करते हुए मंगलवार को मामला पांच जजों की संविधान पीठ को भेज दिया है, जहां इस पर विस्तार से सुनवाई होगी। दरअसल, समलैंगिकता को आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध की श्रेणी से हटाया जाएगा, या यह अपराध बना रहेगा, इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को तीन जजों की पीठ में सुनवाई थी।

समलैंगिक अधिकारों की वकालत कर रहे नाज फाउंडेशन सहित दूसरे संगठनों एवं कई हस्तियों की ओर से दायर संशोधन (क्यूरेटिव) याचिकाओं पर मुख्य न्यायाधीश टी एस ठाकुर की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ सुनवाई करेगी।

सामान्यतया ऐसी याचिकाओं की सुनवाई चैम्बर में होती है, लेकिन शीर्ष अदालत इसकी सुनवाई खुली अदालत में करेगी। याचिकाकर्ताओं ने 2014 के प्रारम्भ में ही संशोधन याचिकाएं दायर की थीं और शीर्ष अदालत से आग्रह किया था कि वह अपने आदेश में संशोधन करे। नाज फाउंडेशन एवं अन्य की याचिकाएं आज सुने जाने वाले मामलों की सूची में शामिल हैं। यह मामला संविधान पीठ के समक्ष दोपहर तीन बजे के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया था, लेकिन शीर्ष अदालत ने फैसला पलटते हुए धारा 377 बरकरार रखी थी। संशोधन याचिका में उसके दिसंबर 2011 और जनवरी 2014 के फैसले को चुनौती दी गई है। करीब 153 साल पुराने इस कानून के तहत अगर दो व्यक्ति आपसी रजामंदी से भी अप्राकृतिक यौन संबंध बनाते हैं तो वह गैर-कानूनी होगा और उसके लिए उम्रकैद की सजा हो सकती है।

यह कानून केवल समलैंगिकों की बात नहीं करता है, बल्कि यह बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन ङ्क्षहसा को मद्देनजर रखते हुए बनाया गया था लेकिन वयस्कों में दो पुरुषों या महिलाओं या समलैंगिकों के बीच सहमति से बनाया गया यौन संबंध भी कानूनी परिभाषा में अप्राकृतिक समझे जाने की वजह से इस कानून के दायरे में आ गया।

ऐसे संबंधों को वैधता देने के लिए ही वर्ष 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई थी और उच्च न्यायालय ने कई साल तक चली सुनवाई के बाद एक ऐतिहासिक आदेश में इस धारा के तहत विशेषकर वयस्कों के बीच समलैंगिक संबधों को कानूनी मान्यता दी भी थी लेकिन कई धार्मिक संगठनों ने इसका विरोध करते हुए इसको शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी, जिसने उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त कर दिया था।

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