नोटिस को स्वीकार करना संवैधानिक बाध्यता नहीं
कानूनविदों के मुताबिक जब तक राज्यसभा के सभापति महाभियोग नोटिस को जांच के लिए स्वीकार नहीं कर लेते तब तक सीजेआई अपने पद पर बने रहेंगे और यथास्थिति अपने न्यायिक कार्य को पूरा करते रहेंगे। हालांकि यदि सभापति नोटिस को स्वीकार कर लेते हैं तो सीजेआई को न्यायिक फैसलों से स्वंय को अलग रखना होगा। बता दें कि नोटिस को स्वीकार करना या न करना सभापति के विवेक पर निर्भर करता है, इसके लिए कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है।
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नोटिस स्वीकार करने पर क्या होगा
सभापति वैंकैया नायडू यदि सीजेआई के महाभियोग के नोटिस को स्वीकार कर लेते हैं तो सबसे पहले तीन सदस्यों की एक कमेटी बनानी पड़ेगी। इस तीन सदस्यों की कमेटी में एक मुख्य न्यायधीश या फिर सुप्रीम कोर्ट के अन्य जज होंगे, जबकि दूसरा किसी हाई कोर्ट के मुख्य न्यायधीश और तीसरा सदस्य कोई कानूनविद होगा। अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वंय अपने ऊपर महाभियोग का सामना करने वाले सीजेआई कैसे इस कमेटी में शामिल हो सकते हैं। बता दें कि तीन सदस्यों वाली यह कमेटी में तीन महीने में रिपोर्ट सौंपती है लेकिन यदि जरुरत हो तो समय और बढ़ाने का भी प्रावधान है।
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नोटिस स्वीकार नहीं करने पर क्या होगा
बता दें कि यदि सभापति महाभियोग प्रस्ताव के नोटिस को अस्वीकार कर देते हैं तो विपक्ष इस मामले को कोर्ट में चुनौती दे सकता है। कानूनविदों को कहना है कि यदि नोटिस सभी शर्तों को पूरा कर रहा हो फिर भी सभापति उसे अस्वीकार कर दे तो इसे कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
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सीजेआई को कैसे हटाया जा सकता है
आपको बता दें कि सीजेआई को उनके पद से हटाने के लिए आपतीय संविधान में पूर्ण वैधानिक व्यवस्था है। संविधान की धारा 124 (4) के मुताबिक ”संसद के दोनों सदनों से तो तिहाई बहुमत के आधार पर प्रस्ताव पास होने के बाद राष्ट्रपति के आदेश से हटाया जा सकता है।’ न्यायधीश अधिनियम 1968 और न्यायधीश क़ानून 1969 के अनुसार महाभियोग का नोटिस दिए जाने के बाद उसकी पहली ज़रूरत यह होती है कि राज्यसभा के 64 सांसदों के हस्ताक्षर होने चाहिए। इसके बाद सभापति इस मामले पर विचार करते हैं।