वर्तमान प्रधानमंत्री ने भी भर्त्सना की है। लेकिन जो लोग सरकार में हैं, उनके लिए इतना नाकाफी है। उन्हें यह कोशिश करनी होगी कि ऐसा नहीं हो। गृह मंत्री और प्रधानमंत्री सभी की जिम्मेवारी बनती है। सरकार को अपनी भाषा और व्यवहार से दिखाना होगा कि वह इसके बिल्कुल खिलाफ है।
हम सामान्य तौर पर राजनीति की बात नहीं करते। क्योंकि रास्ते अलग-अलग हो गए हैं। लेकिन इस बारे में वहां का पूर्व सांसद होने के नाते मुझे पूरी जानकारी है। मैं इतना ही कहूंगा कि जो सच्चाई रखी गई है, उससे सचमुच की सच्चाई भिन्न है। मैं उनकी सफाई नहीं दूंगा। लेकिन सारे तथ्य जब उजागर होंगे तो शायद स्थिति कुछ और दिखेगी। मेरा मानना है कि मॉब लिंचिंग यानी भीड़ का न्याय होने लगेगा तो कानून का राज खत्म हो जाएगा।
हाल के दिनों की स्थिति देख कर लगता है कि विपक्ष चुनौती दे सकेगा। जहां भी विपक्ष ने एकजुट हो कर चुनाव लड़ा है, वहां भाजपा हारी है। लेकिन यह साबित करना होगा कि सिर्फ सरकार की आलोचना के लिए ये एक नहीं हैं, इनके पास एक वैकल्पिक समाधान और देश को आगे बढ़ाने वाली सोच भी है।
यह सच है कि आज मोदीजी के व्यक्तित्व के सामने दूसरा कोई चेहरा नजर नहीं आता। लेकिन हम व्यक्ति के नाम पर चुनाव लड़ना चाहते हैं या मुद्दों पर? अगले चुनाव में मोदी मुद्दा नहीं होंगे, मुद्दे ‘मुद्दा’ होंगे। किसानों, नौजवानों, अस्पसंख्यकों के मुद्दों को छोड़ कर क्या एक व्यक्ति को मुद्दा बनाया जा सकता है? दूसरी बात कि हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र है। अमेरिका जैसी व्यवस्था नहीं। संदीय लोकतंत्र का मतलब यह होता है कि जो लोग चुनकर आते हैं वे अपना नेता चुनते हैं। लेकिन पार्टियां अपनी सुविधा के मुताबिक कभी नेता को आगे करती है, कभी नहीं।
1977 में जब इंदिरा चुनाव हारी थीं, तो कौन सा चेहरा था खिलाफ? अभी हाल में उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार में भाजपा ने कौन सा चेहरा सामने रख कर चुनाव लड़ा था? हर जगह तो मोदी मुख्यमंत्री नहीं होने वाले थे। क्या उत्तर प्रदेश में चुनाव योगी के नाम पर लड़ा गया था?
सभी कड़े और बड़े फैसले सही होंगे इसकी कोई गारंटी नहीं। कड़े और बड़े फैसले लेते समय इतिहास देखना चाहिए। मोहम्मद बिन तुगलक ने कहा था कि वे दिल्ली से राजधानी दौलताबाद ले जाएंगे। बहुत बड़ा और कड़ा फैसला था। क्या नतीजा निकला? इसलिए फैसले नतीजे को ध्यान में रख कर लिए जाने चाहिएं। छोटा सा सवाल पूछता हूं, क्या रिजर्ब बैंक ने सारे नोट गिन लिए? यह तो बता दो कि भई कितनी मुद्रा वापस आ गई। ये न सरकार बता रही है और न ही रिजर्ब बैंक बता रहा है। और हम सब खामोश बैठे हुए हैं।
कहीं न कहीं विपक्ष भी दोषी है कि जनता तक सही मुद्दों को नहीं पहुंचा पा रही?
नहीं पहुंचा पा रहा है विपक्ष। एक बड़ी बात मैं आपसे कहना चाह रहा हूं कि पिछले सालों में संसद का ह्रास हुआ है। संसद सत्र जिस प्रकार छोटे हुए हैं उसे भी विपक्ष नहीं उठा पा रहा है। ऐसा लगता है कि विपक्ष को इन प्रजातांत्रिक मूल्यों की कोई चिंता नहीं है। इसकी चिंता करनी होगी। नोटबंदी बिल्कुल गलत फैसला था। उसके बारे में अब कोई संदेह नहीं बचा क्योंकि मोदी जी ने 8 नवम्बर 2016 को जितने उद्देश्य सामने रखे थे, उसका एक अंश भी हासिल नहीं हुआ।
मैं 2014 तक उस संसदीय समिति का अध्यक्ष था, जिसने जीएसटी कानून पर रिपोर्ट दी। इसे आधे-अधूरे और गलत ढंग से लागू किया गया। देश की व्यवस्था तैयार नहीं थी। आज निर्यातकों को रिफंड नहीं मिल पा रहा, और उनकी माली हालत खराब है।
दीर्घकाल में तो इसका अच्छा प्रभाव होगा?
एक बहुत बड़े अर्थशास्त्री हुए हैं, लोर्ड जे.एम. केन्स, वे कहते हैं कि दीर्घकाल में तो हम सब मर चुके होंगे।
ईवीएम की भूमिका बड़ी है। इसका कैसे दुरुपयोग किया जाएगा, इसके बारे में लोगों को शक है। चुनाव आयोग को बिना किसी दबाव के खुद तय करना चाहिए कि अगले चुनाव में वह हर सीट पर २५ प्रतिशत वोटों की गिनती वीवीपैट से करवाएगा। इसी तरह चुनाव में उम्मीदवारों और पार्टियों की ओर से जो इतनी मोटी रकम खर्च की जाती है, उसको ले कर कोई चिंता नहीं हो रही है।
इसके बड़ा बेमानी नारा हाल के दिनों में कोई दूसरा नहीं आया। जब तक हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र है, आप ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ को लागू नहीं कर सकते।
1999 में अटलजी की सरकार एक वोट से विश्वास मत हार गई। उन्होंने इस्तीफा दिया और दूसरी सरकार नहीं बन पाई। अगर वह परिस्थिति आती है तो क्या हम चार साल तक मृत लोकसभा को जिंदा रखने का प्रयास करेंगे? इसके पीछे मुझे बहुत खतरनाक मंशा नजर आती है। मैं अगर प्रधानमंत्री हूं और लोकसभा में चुनाव हार भी गया तो भी बना रहूं, यही मंशा है।
प्रजातंत्र को चलाना है तो जरूरी खर्च तो होगा। बार-बार चुनाव करवाने होते हैं, संसद चलानी होती है, विधानसभाएं चलानी होती हैं। खर्च से बचना है तो प्रजातंत्र को खत्म कर दीजिए। 25 साल के लिए एक सरकार होगी और वह जैसे चलाएगी देश वैसे चलेगा।
राजनीति आम लोगों के लिए अपार संभवनाओं से भरी है। देश हो या विदेश, अक्सर फिल्म वालों की संतान फिल्म में जाती है, वकील के बच्चे वकालत में जाते हैं। यह परंपरा चली आ रही है। जाहिर है कि राजनीति में जो लोग हैं, उनके बेटे-बेटी या रिश्तेदार भी राजनीति में जोर आजमाइश करना चाहेंगे। लेकिन हम प्रजातांत्रिक देश हैं और यहां सबसे बड़ी परीक्षा है चुनाव। यह नहीं होना चाहिए कि बिना किसी मेहनत के उतार दिया जाए। सीधे राज्य सभा भेज दिया जाए।
यह जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा महिलाएं राजनीति में आएं और उन्हें मौजूदा लोगों का सहयोग मिले। लेकिन चुनाव लड़ने की जहां तक बात है, अक्सर महिलाएं और पुरुष दोनों ही सीधा चुनाव लड़ना चाहते हैं। पहले कोई क्षेत्र चुनिए, वहां काम कीजिए, फिर टिकट का दावा कीजिए। बिना संघर्ष और मेहनत किए सिर्फ चुनाव लड़ने की अभिलाषा, ठीक नहीं।
अपनी नौकरी छोड़ कर मैं राजनीति में आया था तो इसके पीछे कुछ प्रेरणा थी (सिन्हा ने आइएएस की नौकरी छोड़ कर राजनीति में कदम रखा था)। पेशेवर लोग किसी बड़े मकसद को ले कर राजनीति में आएं तो बड़ा बदलाव होगा। वर्ना घर पर बैठ कर राजनीति को कोसते रहना तो आसान है।
इसके लिए तो आपको तैयार रहना होगा। राजनीति एक ऐसा क्षेत्र है, जहां आपके जीवन का पूरा एक्सरे उतार कर जनता के सामने रखा जाता है। यहां निजता नाम की कोई चीज नहीं। जहां तक भाषा की बात है। अटल जी अभी-अभी गुजरे हैं। उन्होंने कभी इस तरह की भाषा का उपयोग नहीं किया। जिनकी मुद्दों को ले कर कोई समझ नहीं वे आएंगे तो गलत भाषा का ही उपयोग करेंगे।