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देश में एक जगह ऐसी भी, जहां एक महीने बाद मनती है दिवाली, जानिए क्यों ?

देहरादून जिले के 398 गांवों में दिवाली का यह जश्न शुरू हो चुका है। खास बात है कि यहां तीन से सात दिन तक दिवाली मनाई जाती है।

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देहरादून: देशभर में कार्तिक अमावस्या को दिवाली त्योहार मनाया जाता है। लेकिन देश में एक जगह ऐसी भी जहां अमावस्या के एक महीने बाद दिवाली मनाई मनाई जाती है। उत्तराखंड के जौनसार-बावर व सिरमौर क्षेत्र में दिवाली कार्तिक अमावस्या के एक महीने बाद मनाई जाती है। देहरादून जिले के 398 गांवों में दिवाली का यह जश्न शुरू हो चुका है। खास बात है कि यहां तीन से सात दिन तक दिवाली मनाई जाती है। इस क्षेत्र की जनसंख्या एक लाख 47 हजार है।

एक महीने बाद मिला था समाचार

स्थानीय निवासी अनिल तोमर बताते हैं कि यह परंपरा हमारे पूर्वजों के समय से चली आ रही है। किंवदन्ती है कि अयोध्या यहां से बहुत दूर होने के कारण भगवान रामचन्द्र के राज्याभिषेक का समाचार यहां एक माह बाद पहुंचा। लेकिन यह भी एक तर्क है कि कार्तिक माह में फसल की कटाई और बुआई होने के कारण लोग बहुत अधिक व्यस्त रहते हैं। इसलिए एक माह बाद मंगसीर में यह त्योहार मनाते हैं।

इष्ट देवताओं से जुड़ी है परंपरा
नई पीढियां इन परंपराओं को मानती है कि नहीं यह पूछने पर अनिल बताते हैं कि हमारे यहां इष्ट देवताओं के नाम से यह परंपराएं जुडी हुई हैं। इसलिए चाहे कोई नौकरी में हो या कितना भी व्यस्त क्यों न हो उसका आना आवश्यक है। उन्होंने बताया कि नई दिवाली में लोग ज्यादातर दीप जलाते हैं, पटाखे चलाते हैं लेकिन हमारे गांव इको फ्रेंडली दिवाली के लिए मशहूर है। इसके तहत परिवार में जितने सदस्य हों, ठीक उतनी ही संख्या में सूखी लकड़ियों से मशाल बनाई जाती है। चाहे उसमें से कुछ मशालें ही जलाई जाएं। गांव के लोग इस दौरान मंदिर के आंगन में रात भर इष्ट देवता को याद करते हुए जागरण करते हैं और घर-परिवार के कुशल मंगल की प्रार्थना करते हैं।

ऐसे मनाते हैं दिवाली

अमावस की रात को सभी ग्रामीण अपने गांव से कुछ दूर ’होला’ (मक्का)का पुंज तो कहीं पर लकड़ी का पुंज जलाते हैं। पांडवों तथा लोक देवता महासू के गीत गाए जाते हैं। पुरुष, खासकर बच्चे ’होलड़ा’(होला) लेकर खेत के आस-पास हाथ में लेकर घुमाते हैं। दूसरे दिन गाँव के पुरुष गेहूं, जौ की उगाई हरियाली लेकर आंगन में उतरते हैं। सबसे पहले महिलाएं कुल देवता को गोमूत्र व गंगाजल चढ़ाते हैं। इसके बाद पुरुष कान में हरियाली लगाते हैं और फिर नर-नारी आँगन में गीत गाते हैं। इस दिवस को ’भिरुड़ी’ कहते हैं। आपसी मतभेद भुलाकर जौनसारी महिला-पुरुष एक-दूसरे के घर जाकर, गले मिलकर अखरोट, मुवड़ा (गेहूँ को उबाल कर)तथा चिवडे़ (चावल उबले व कुटे हुए) का आदान-प्रदान करते हैं। सात दिनों के इस पर्व के अन्तिम दो दिनों में किसी गांव में हिरण व हाथी बनाकर गांव का स्याण बैठकर नाचता है। टोंस नदी की सीमा से लगे सिरमौर जिले में भी दिवाली मनाने की यह परम्परा है। उत्तरकाशी के अनेक हिस्सों में भी इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता हैं।