धु्रव ने सच्चे मन से सेवा की इसलिए भगवान को पाया
– श्रीमद भागवत कथा में पं. दाऊदयाल शास्त्री ने कहा
धु्रव ने सच्चे मन से सेवा की इसलिए भगवान को पाया
मुरैना. गणेश पुरा स्थित रामेश्वर गार्डन में चल रही श्रीमद भागवत कथा के दूसरे दिन पं. दाऊदयाल शास्त्री ने ध्रुव चरित्र की कथा सुनाई। उन्होंने कहा कि ध्रुव बाल्यावस्था से ही भगवान के अनन्य भक्त थे। शास्त्री ने कहा कि महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थी, सुनीति व सुरुचि। सुनीति से ध्रुव तथा सुरुचि से उत्तम नाम के पुत्र पैदा हुए। महाराज उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरचि से अधिक प्रेम करते थे और सुनीति उपेक्षित रहती थी। इसलिए वह सांसारिकता से विरक्त होकर अपना अधिक से अधिक समय भगवान के भजन पूजन में व्यतीत करती थी।
शास्त्री ने कहा कि एक दिन सुनीति का पुत्र ध्रुव अपने पिता महाराज उत्तानपाद की गोद में बैठ गया। यह देख सुरुचि उसे खींचते हुए गोद से उतार देती है और फटकारते हुए कहती है यह गोद और राजा का सिंहासन मेरे पुत्र उत्तम का है, तुम्हें यह पद प्राप्त करने के लिए भगवान की आराधना करके मेरे गर्भ से उत्तन्न होना पड़ेगा। ध्रुव सुरुचि के इस व्यवहार से अत्यंत दुखी होकर रोते हुए अपनी मां सुनीति के पास पहुंचे और सारी बात बताई। सुनीति के मन में भी अत्यंत पीड़ा हुई। फिर भी ध्रुव का समझाते हुए कहती है कि उन्होंने क्रोध के आवेश में आकर ठीक ही तो कहा है। भगवान ही तुम्हे पिता का सिंहासन अथवा उससे भी श्रेष्ठ पद देने में समर्थ हैं अत: तुम्हें भगवान की आराधना करनी चाहिए। मां के वचन सुनकर पांच वर्ष का बालक ध्रुव वन की ओर प्रस्थान करता है। मार्ग में उन्हैं देवर्षि नारद मिले, उन्होंने ध्रुव को काफी समझाकर घर लौटने का प्रयास किया किंतु वे उसे वापस नहीं कर सके। अंत में नारदजी ने ध्रुव को द्वादशाक्षर मंत्र ऊं नमो भगवते वासुदेवाय की दीक्षा देकर यमुना तट पर मधुवन में तप करने को कहा। ध्रुव ने वहां पहुंच कर घोर तपस्या की और भगवान को प्राप्त किया। शास्त्री ने कहा कि सच्चे मन से ईश्वर की आराधना करने से हर कोई भक्त ध्रुव बन सकता है। अर्था नि:स्वार्थ भाव से की गई पूजा अर्चना कभी व्यर्थ नहीं जाती। कथा का आयोजन ऊषा सिकरवार द्वारा कराया जा रहा है।
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