आसन नदी के किनारे पत्थर की चट्टानों पर जहां भगवान सूर्यदेव ने माता कुंती को कर्ण सौंपे थे वहां घोड़ों के पदचापों जैसी आकृतियां बनी हुई हैं। मान्यता है कि भगवान सूर्य के रथ में जोते गए घोड़ों के ही यह पदचाप हैं। नदी के किनारे माता कुंती का मंदिर भी बनाया गया है और एक साल पहले भगवन सूर्यदेव की रथ सहित स्थापना की गई है। जिस नदी में कर्ण को बहाया गया था उसे कर्णखार के नाम से भी जाना जाता है। बाद में कर्ण बहते हुए आसन से क्वारी, क्वारी से चंबल, चंबल से यमुना और यमुना से गंगा होते हुए इलाहाबाद व काशी के बीच चंपा नगरी पर अदरथ और राधे नदी में स्नान कर रहे थे। कर्ण की पिटारी उनसे टकराती है तो वे उसे हस्तिनापुर ले गए अदरथ हस्तिनापुर महाराजा पांडु के सारथी थे। इसलिए कर्ण हस्तिनापुर से जुड़ गए। बाद में कुंती भी वहीं ब्याहकर चली जाती हैं।
ऋषि दुर्वासा का वरदान बना कर्ण के अवतरण का आधार
कुंती मंदिर के महंत आशाराम त्यागी महाराज बताते हैं कि यह महाभारत के कुंतीभोज की नगरी थी। एक बार महामुनि दुर्वासा द्वापर युग में आए और यहां चातुर्मास करने की इच्छा जाहिर की। राज कुंतीभोज तो तैयार हो गए,, लेकिन जब राजमहल में पूछा तो सबने मना कर दिया। इसकी वजह थी उनका क्रोधी स्वभाव। क्रोधित होने पर वे श्राप दे देते थे, लेकिन कुंती ने सेवा का संकल्प लिया और अपने महल के सेवकों के माध्यम से सेवा की। इससे मुनि दुर्वासा प्रसन्न हुए और वरदान देने का मन मनाया, लेकिन उन्होंने अपने तपबल से देखा कि कुंती का विवाह महाराज पांडु से होगा और श्राप की वजह से उन्हें पुत्र प्राप्ति नहीं होगी। चातुर्मास के बाद ऋषि दुर्वासा चले गए और पुत्र प्राप्ति के लिए पांच मंत्र दे गए। कुंती ने नदी में स्नान के बाद भगवान सूर्य का आह्वान किया। सूर्य भगवान आए तो कुंती ने कहा कि उन्होंने मंत्र का परीक्षण किया था। वे वापस चले जाएं, लेकिन सूर्यदेव ने कहा कि वे आह्वान के बाद वापस नहीं जा सकते, तब उन्होंने पुत्र के रूप में कर्ण दिए।
सूर्य ही छोटे कर्ण को गोद मे लेकर आए थे
कर्ण के कुंती की कोख से जन्म लेने को लेकर दो तरह के मत हैं। महंत आशाराम त्यागी के अनुसार एक मान्यता है कि भगवान सूर्य ही अपने साथ छोटे कर्ण को अपने समान तेजस्वी बनाकर लाए थे और कुंती को सौंप गए, जबकि श्रीमद भागवत कथा में जिक्र है कि कर्ण कुंती के गर्भ से ही जन्मे थे।
मंदिर बना है कुंती का
कोतवाल गांव के बाहर आसन नदी के किनारे कुंती का मंदिर बना हुआ है। हालांकि यहां पहले से शिवलिंग स्थापित है। 2004 में माता कुंती प्रतिमा की प्रतिष्ठा हुई, 2016 में रामदरबार की प्रतिष्ठा भी कराई गई है और जून 2019 में यहां रथ सहित भगवान सूर्य की भी प्रतिष्ठा कराई गई है।
कुंतलपुर (वर्तमान कोतवाल) महाभारत की माता कुंती का मायका है। महामुनि दुर्वासा ने सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें पांच मंत्र दिए थे। परीक्षण करने पर भगवान सूर्यदेव ने अपने समान तेजस्वी पुत्र कुंती को कर्ण के रूप में दिया था। लोकनिंद के डर से उन्होंने नदी में बहा दिया, जो हस्तिनापुर पहुंचकर वहां के राजमहल से जुड़ गया। भगवात कथा में इसका जिक्र है। भगवान सूर्यदेव कुंती के आह्वान पर यहां उतरे थे तो उनके तेज के कारण चट्टानें पिघल गई थीं और घोड़ों के पदचाप बन गए। कुछ नदी में पानी ज्यादा होने से डूबे हैं और कुछ किनारे पर दिखते हैं।
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