वही ‘जादू टोना’ का किस्सा
‘काली खुही’ में भी दस साल की शिवांगी (रेवा अरोड़ा) माता-पिता (सत्यदीप मिश्रा, संजीदा शेख) के साथ अपनी दादी (लीला सेमसन) के गांव पहुंचती है। यह गांव पंजाब का बताया गया है, लेकिन वहां ज्यादातर कलाकार पंजाबी नहीं बोलते। हमने तो सुना था कि पंजाब के लोग दुनिया के किसी भी कोने में पहुंच जाएं, पंजाबी बोलना नहीं भूलते। बहरहाल, गांव के एक पुराने कुएं के बारे में बताया जाता है कि बरसों पहले कई बच्चियों को मारकर उसमें फेंक दिया गया था। इसी कुएं को लेकर गांव में दहशत का माहौल है। मारी गई बच्चियों में से एक की आत्मा अपने हत्यारों से बदला लेना चाहती है। ‘काली खुही’ बनाने वाले दूर की कौड़ी लेकर आए हैं कि शिवांगी अकेली गांव को दहशत से मुक्त कर देती है।
घटनाएं तर्क से परे
न तो इस फिल्म की कहानी गले उतरती है, न घटनाओं का कोई तार्किक आधार नजर आता है। गांव की एक वृद्धा (शबाना आजमी) के पास मारी गईं तमाम बच्चियों के नाम हैं। अगर इनमें से ज्यादातर बच्चियों की गर्भ में ही हत्या की गई थी, तो यह कैसे मुमकिन है कि इनके नाम भी वृद्धा के पास हैं। नाम तो जन्म के बाद रखे जाते हैं। हद यह है कि फिल्म में कन्या भ्रूण हत्या का जिक्र भी हॉरर पैदा करने के लिए किया गया है। बीमार दादी लीला सेमसन अपनी बहू संजीदा शेख को बेटी पैदा करने के लिए ताने देती रहती है। इससे ज्यादा फिल्म कन्या भ्रूण हत्या पर फोकस नहीं कर पाती।
पहली फिल्म में मायूस किया टैरी समुंद्रा ने
निर्देशक टैरी समुंद्रा की यह पहली फिल्म है। अफसोस की बात है कि कन्या भ्रूण हत्या के मामलों का अध्ययन किए बगैर उन्होंने सुनी-सुनाई बातों पर अंधविश्वास का ऐसा लडख़ड़ाता तमाशा पेश किया, जिसमें शायद ही किसी वर्ग के दर्शकों की दिलचस्पी हो। टैरी समुंद्रा इससे पहले करीब आधा दर्जन शॉर्ट फिल्में बना चुकी हैं। सिनेमा अगर कहानी कहने का हुनर है, तो ‘काली खुही’ देखने के बाद कहा जा सकता है कि फिलहाल वे इस हुनर से काफी दूर हैं।
शबाना आजमी भी नहीं बांध पाईं
शबाना आजमी ( Shabana Azmi ) को इस फिल्म में कुछ खास नहीं करना था। वह काफी देर बाद कहानी में दाखिला लेती हैं। उनकी मौजूदगी भी फिल्म को लडख़ड़ाहट से नहीं उभार पाती। कहानी रेवा अरोड़ा ( Riva Arora ) पर केंद्रित है। इस बच्ची का काम ठीक-ठाक है। उसके चेहरे पर दहशत के भाव पढ़े जा सकते हैं। यह दूसरी बात है कि इस हॉरर फिल्म में दर्शकों को कहीं दहशत महसूस नहीं होती। तथाकथित हॉरर के कई दृश्य तो हद से ज्यादा हास्यास्पद हैं।
‘बुलबुल’ से भी कमजोर
लॉकडाउन के दौरान जिन हॉरर फिल्मों का डिजिटल प्रीमियर हुआ, उनमें कल तक ‘बुलबुल’ को सबसे कमजोर माना जा रहा था। उसमें भी तर्कों को ताक में रखा गया था। ‘काली खुही’ तर्कों की धज्जियां उड़ाने के मामले में ‘बुलबुल’ से भी चार कदम आगे है। जाने हमारे फिल्मकार उस सलीके से कब लैस होंगे, जो हॉलीवुड की हॉरर फिल्मों में नजर आता है। वहां की फिल्में देखकर सीखा जाना चाहिए कि भूत-प्रेतों के तमाशों के बगैर भी हॉरर फिल्म कैसे बनाई जाती है।
० फिल्म : काली खुही
० रेटिंग : 2/5
० अवधि : 1.30 घंटे
० निर्देशक : टैरी समुंद्रा
० लेखन : रूपिन्दर इंद्रजीत, डेविड वाल्टर, टैरी समुंद्रा
० फोटोग्राफी : सेजल शाह
० संगीत : डेनियल बी. जॉर्ज
० कलाकार : शबाना आजमी, रेवा अरोड़ा, संजीदा शेख, सत्यदीप मिश्रा, लीला सेमसन, पूजा शर्मा, पल्लवी कुमारी, चांद रानी, जतिन्दर कौर, सुखविन्दर विर्क आदि।