निर्देशक फारुक कबीर ने अपनी पिछली फिल्म ‘अल्लाह के बंदे’ (2010) से जो उम्मीदें जगाई थीं, ‘खुदा हाफिज’ उन्हें चूर-चूर कर देती है। करीब दो घंटे लम्बी इस फिल्म की ज्यादातर घटनाएं इतनी उबाऊ और हास्यास्पद हैं कि देखने वाले ‘भगवान बचाए’ की मुद्रा में आ जाते हैं। भावुक दृश्यों में भी अगर देखने वालों को हंसी आए तो फिल्म के हुलिए को समझा जा सकता है। बाकी नक्शा ‘नोमान के तेल के आगे रिसेशन (मंदी) भी पानी नहीं मांगता’ जैसे बड़बोले संवाद साफ कर देते हैं। फिल्म में हद से ज्यादा खून-खराबा है। कभी गोलियां चलती हैं तो कभी चाकू। जहां ये दोनों नहीं चलते, वहां किचन के कांटे-छुरी चलने लगते हैं। किसी फिल्म को तर्कसंगत क्लाइमैक्स तक ले जाने के लिए जो स्वाभाविक लय जरूरी होती है, ‘खुदा हाफिज’ में गायब है। यह उन फिल्मों में से है, जो जुर्म के खिलाफ लड़ाई के कारगर औजारों से लोगों का ध्यान हटा कर फंतासी की ऐसी दुनिया में भटकाती है, जहां आदमी के दुख-दर्द भी तमाशा बना दिए जाते हैं।
विद्युत जामवाल शरीर सौष्ठव पर इतनी मेहनत करते हैं कि अभिनय पर ध्यान नहीं दे पाते। ‘खुदा हाफिज’ में फिर साबित हुआ कि किरदार के अनुरूप अभिनय करना उनके लिए दूर की कौड़ी है। पूरी फिल्म में उनका चेहरा भाव शून्य बना रहता है। उन्हें देख कर लगता नहीं कि उनकी बीवी अजनबी देश में गुम हो चुकी है। शिवालिका ऑबेरॉय को कुछ खास नहीं करना था। अन्नू कपूर नाटकीय होने के बावजूद थोड़ी-बहुत राहत देते हैं। अगर यह फिल्म सिनेमाघरों में पहुंचती तो उनके ‘तुम जिसे कर्ज कहते हो, पठान उसको अपना फर्ज मानता है। तुमको जो अहसान लगता है, मोमिन (धर्मनिष्ठ) को ईमान लगता है’ जैसे संवादों पर कुछ तालियां जरूर बजतीं।