शुक्रवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म ( OTT Platform ) पर जारी की गई ‘लॉ’ ( Law Movie ) में जो कुछ है, वह काफी पहले रेखा ( Actress Rekha ) की ‘घर'( Ghar Movie ), जीनत अमान की ‘इंसाफ का तराजू’ ( Zeenat Aman Insaf ka Tarazu ) , डिम्पल कपाडिया की ‘जख्मी औरत’ ( Dimple Kapadia Zakhmi Aurat ) और मीनाक्षी शेषाद्रि की ‘दामिनी’ ( Meenakshi Seshadri Damini ) में दिखाया जा चुका है। बलात्कार की शिकार महिला की मनोदशा को ‘घर’ में संवेदनशीलता के साथ पेश किया गया था तो ऐसे मामलों की अदालती कार्रवाई पर ‘इंसाफ का तराजू’ कहीं ज्यादा मुखर थी। ‘लॉ’ इन दोनों मोर्चों पर मात खाती है। फिल्म की पटकथा बिखरी हुई है। कई सीन इतने हास्यास्पद हैं कि फिल्म के बजाय यह टीवी के किसी अति नाटकीय क्राइम शो जैसी लगती है, जहां हर कोई बिना बात बोले चला जाता है। फार्मूलेबाजी, नारेबाजी और ड्रामे की ओवर डोज के कारण ‘लॉ’ बलात्कार के खिलाफ मजबूती से खड़ी होने के बजाय शुरू से आखिर तक लड़खड़ाती रहती है। रघु समर्थ का निर्देशन फिल्म की एक और कमजोर कड़ी है।
बलात्कार के मसले पर हाल ही ज्योतिका की तमिल फिल्म ‘पोंमगल वंधल’ का भी डिजिटल प्रीमियर हो चुका है। उसमें भी करीब-करीब वही कमजोरियां थीं, जो ‘लॉ’ में बार-बार उभरती हैं। पता नहीं, दक्षिण के फिल्मकार किसी संजीदा विषय को पर्दे पर पेश करते हुए इतने ‘लाउड’ क्यों हो जाते हैं कि कहानी बिखर-बिखर जाती है।