बेजान कहानी, कदम-कदम पर फूहड़ता
टीआरपी के भूखे टीवी वालों की तिकड़मों और हॉरर की इस बेस्वाद खिचड़ी में इतने फेल-फक्कड़ हैं कि दिमाग चकराने लगता है। क्यों आखिर क्यों? क्यों और किसके लिए बनाई गई यह वेब सीरीज? कदम-कदम पर इतनी फूहड़ता.. तौबा-तौबा। बेजान कहानी हिचकोले खाती रहती है। कलाकार बिना बात चीखते-चिल्लाते हुए भागते रहते हैं। भाग-दौड़ में उन्हें ख्याल ही नहीं रहता कि क्या करना है। कलाकारों को छोडि़ए, निर्देशक वेंकट प्रभु को भी शायद पता नहीं था कि उन्हें दिखाना क्या है। वह पहले खुद की लिखी फुसफुसी कहानी पर फिल्म बनाना चाहते थे, लेकिन बाद में इसे सात एपिसोड की वेब सीरीज में तब्दील कर दिया।
टीवी पर भूतों का लाइव शो
‘लाइव टेलीकास्ट’ में काजल अग्रवाल ( Kajal Aggarwal ) हॉरर शो की विशेषज्ञ हैं। एक टीवी चैनल पर उनके ‘डार्क टेल्स’ नाम के लाइव शो ने धूम मचा रखी है। इसमें आम लोगों के अजीबो-गरीब अनुभव पेश किए जाते हैं। किसी और के शो से जब ‘डार्क टेल्स’ की टीआरपी गिरने लगती है, तो काजल भूतों के लाइव शो की तैयारियां शुरू करती हैं। प्लान यह था कि किसी कलाकार को भूत बनाकर दर्शकों को बहलाया जाएगा। लेकिन अपनी यूनिट के साथ वह जिस मकान में शूटिंग करने पहुंचती हैं, वहां अजीब-अजीब घटनाएं होने लगती हैं। यूनिट वालों की जान पर बन आती है।
हंसी आती है बनाने वालों की सोच पर
अफसोस होता है कि स्मार्ट फोन के दौर में कुछ ओवर स्मार्ट लोग इस तरह का अंधविश्वास परोस रहे हैं। साढ़े तीन घंटे से ज्यादा लम्बी इस वेब सीरीज में जहां हॉरर पैदा करने की कोशिश होती है, इसे बनाने वालों की सोच पर हंसी आने लगती है। इसी तरह की हंसी कभी उन हॉरर फिल्मों को देखकर आती थी, जो रामसे ब्रदर्स बनाते थे। गोया ‘दो गज जमीन के नीचे’ से निकलकर उनकी फिल्मों का थका-हारा ‘भूत’ इस वेब सीरीज में फिर सक्रिय हो गया। बहरहाल, काजल अग्रवाल को छोड़ सीरीज के ज्यादातर कलाकार हिन्दी पट्टी के लिए अजनबी हैं। काजल को हम ठीक-ठाक अभिनेत्री मानते थे। ‘लाइव टेलीकास्ट’ में दूसरे कलाकारों के साथ वह भी ओवर एक्टिंग का रेकॉर्ड तोड़ती लगती हैं। समझ नहीं आता कि जो बात एक-दो जुमले में कही जा सकती है, उसके लिए दक्षिण की कुछ अभिनेत्रियां नॉन-स्टॉप चटर-पटर का सहारा क्यों लेती हैं।
तर्क की कोई गुंजाइश नहीं
इस तरह की बचकाना वेब सीरीज में तर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहती। वेंकट प्रभु ने शायद बच्चों और बच्चों जैसे दिमाग वाले बड़ों के लिए इसे तैयार किया है। यह वर्ग भी ‘लाइव टेलीकास्ट’ नहीं झेल पाएगा। पटकथा निहायत ढीली है। कुछ प्रसंगों को देखकर लगता है कि इन्हें अलग से चिपकाया गया है। कैमरा महिला किरदारों पर घूमना शुरू करता है, तो निर्देशक के ‘कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना’ वाले इरादे उजागर हो जाते हैं।
-दिनेश ठाकुर