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कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का दर्द बयां करती ‘शिकारा’ देखने से पहले यहां पढ़ें मूवी रिव्यू

locationमुंबईPublished: Feb 08, 2020 05:08:27 pm

पांच साल बाद बड़े परदे पर वापसी कर रहे निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने 1990 में कश्मीर के हालात और कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कहानी कहने का प्रयास किया है….

Shikara review

Shikara review

निर्देशक –विधु विनोद चोपड़ा
सितारे –आदिल ख़ान, सादिया और अन्य
कहानी –विधु विनोद चोपड़ा
स्क्रीन प्ले –विधु विनोद चोपड़ा, राहुल पंडिता और अभिजात जोशी
सिनेमैटोग्राफऱ –रंगराजन रामबद्रन
रन टाइम –120 मिनट
रेटिंग –2.5/5 स्टार

कश्मीरी पंडितों के दर्द की कहानी कहती हुई यह फिल्म अपने मूल में एक प्रेम कहानी है। पांच साल बाद बड़े परदे पर वापसी कर रहे निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने 1990 में कश्मीर के हालात और कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कहानी कहने का प्रयास किया है। इस फिल्म में कश्मीर की खूबसूरती को बेहतरीन तरीके से दिखाया गया है। कहानी स्लो चलने के बावजूद यह अच्छे निर्देशन में बेहतर प्रेम कहानी है। पर यहां कई सीन ऐसे हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि यह फिल्म में क्यों हैं? जैसे फिल्म कुछ साबित करने के लिए बनाई गई हो?

 

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कहानी
कहानी डॉ शिव कुमार धर (आदिल ख़ान) और उनकी पत्नी (सादिया) को केंद्र में रखकर बुनी गई है। शिव 28 सालों से जम्मू के रिफ्य़ूज़ी कैम्प में रह रहे हैं। वे अमेरिका के राष्ट्रपतियों को वर्षों से लगातार पत्र लिखकर बताते रहे कि अमेरिका ने जो हथियार अफग़ानिस्तान में आतंक फैलाने के लिए दिए थे, अब वे हथियार कश्मीर में आग लगा रहे हैं। 28 साल बाद शिव के पत्र का पहले जवाब आता है। अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आ रहे हैं, उन्होंने शिवकुमार को मिलने आगरा बुलाया है। यहां कहानी पीछे से शुरू होती है। कश्मीर में हो रही एक फिल्म की शूटिंग के दौरान शिव और शांति की मुलाक़ात होती है। दोनों एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं, और फिर शादी करके अपना घर बसाते और बनाते हैं। वे अपना घर बनाते हैं, जिसका नाम रखते हैं शिकारा। घाटी में बिगड़ रही स्थिति के चलते उन्हें अपना शिकारा छोडऩा पड़ता है। पूरी फिल्म में विधु विनोद चोपड़ा ने अपने घर पहुंचने की इच्छा रखने वाले कश्मीरी पंडितों के विस्थापन का दर्द दिखाने का प्रयास किया है।

निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा ने हर सीन को अच्छी तरह से पकड़ कर रखा है। पर कई स्थानों पर समझ में नहीं आता कि आखिर वे यह क्यों दिखा रहे हैं। शिकारा का स्क्रीनप्ले बेहतरीन है। पर फिल्म की धीमी गति आज के दर्शकों को निराश करेगी। जैसे ट्रक में से गाय का बच्चा निकालना जैसे सीन समझ से परे हैं। सिनेमैटोग्राफऱ राजन रामबद्रन ने कश्मीर की खूबसूरती और तबाही को भी बखूबी दिखाया है।

 

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इरसाद कामिल के लिखे कवितानुमा गाने सुनने में ठीक लगते हैं, पर ऐसे नहीं हैं कि ज़ुबान पर चढ़ जाएं। संवाद भी ठीक-ठाक बने हैं।

दोनों नए कलाकारों का अभिनय बेहतरीन है, ऐसा कि फिल्म आपको बांधे रखेगी। सादिया और आलिद को कैमरे के सामने देखकर ऐसा लगता नहीं है कि ये उनकी पहली फिल्म है। खुशी, डर, निराशा, उम्मीद जैसे हर भाव को पकडऩे में वे सफल हुए हैं। स्क्रीन पर दोनों की केमिस्ट्री बहुत अच्छी लगी है। बाक़ी सपोर्टिंग कास्ट्स ने अच्छा काम किया है। क्यों देखें कश्मीर की सुंदरता के लिए धीमी चलने वाली प्रेम कहानी के लिए देखा जा सकता है।

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