जिनको वरदान मिला, उनकी तो गिनती दुष्टों में हो गई और जिनको शाप मिला, उनकी पूजा होने लगी। यही जीवन की कला है। कई लोग वरदान को भी शाप बना लेते हैं और कई लोग कला में इतने निपुण होते हैं कि शाप को भी वरदान बना लेते हैं।
सत्कर्म के द्वारा कल्याण होता है यह कर्मयोग है और भक्तियोग की मान्यता यह है कि जो-जो कमी मानी जाती है, व्यक्ति उस कमी को भी यदि भगवान की ओर मोड़ दे तो हमारी कमी भी भगवान के पास पहुंच करके, दोष दोष न रह करके गुण बन जाता है।
भगवान शंकर की कला यह है कि वे दोषों को गुण बना देते हैं। अन्य देवता अमृत पीकर अमर होते हैं पर शंकर विष पीकर अमर होते हैं। वैद्य की कला यह है कि वह संखिया के विषत्व को मिटाकर उसमें भी अमृतत्व की सृष्टि कर देता है।
शंकरजी में दोष हैं नहीं, लेकिन वे दोषों को स्वीकार करते हैं, दोषों को गुण बनाने के लिए। शंकरजी टेढ़े चंद्रमा को भी ऊपर उठाकर उसे वन्दनीय बना देते हैं, विष को भी अमृत बना देते हैं, यही उनके जीवन की कला है । यदि कला ठीक नहीं है तो गुण भी दोष बन सकते हैं। रामायण के जो बुरे पात्र हैं, उनके जीवन में भी गुण हैं, परंतु उन्होंने गुण को दोष बना दिया ।