सबसे हैरत की बात तो यह है कि यहां के कांग्रेसी नगरसेवकों के पाला बदलने का इतिहास पुराना होने के बावजूद कांग्रेस ने अपनी पुरानी गलतियों से भी कुछ भी सबक नहीं लिया। 2012 में भी छह नगरसेवकों वाली इसी कोणार्क विकास आघाडी ने व्हिप के बावजूद कांग्रेस के दो नगरसेवकों का पाला बदलवाते हुए तब भी इन्हीं प्रतिभा पाटील को महापौर बनवाया था। जिससे कांग्रेस की प्रत्याशी मिस्बाह इमरान खान दो मतों से हार गई थी। लेकिन वक्त का खेल देखिए इस बार मिस्बाह के पति और कांग्रेसी नगरसेवक इमरान खान ने ही 18 नगरसेवकों के साथ खुद बगावत करके उन्हीं प्रतिभा पाटील को महापौर बनवाते हुए खुद उप महापौर की कुर्सी पर विराजमान हो गए हैं।
इस नए राजनैतिक घटनाक्रम में अपना मुंह बचाने के लिए प्रदेश कांग्रेस ने भिवंडी शहर जिला अध्यक्ष शोएब खान गुड्डू और भिवंडी मनपा में कांग्रेस के गट नेता हलीम अंसारी को पक्षादेश न मानने वाले 18 कांग्रेसी नगरसेवकों के खिलाफ कार्रवाई करने का आदेश देते हुए शहर जिलाध्यक्ष शोएब खान को भी कारण बताओ नोटिस जारी किया है। लेकिन सबसे बड़े मुद्दे की बात तो यह है कि महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस और उसके नेता ही पूरी तरह इस शर्मनाक हार के जिम्मेदार हैं। क्योंकि प्रदेश के बड़े नेताओं की ‘गिव एंड टेक’ पालिसी के जरिए स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व को बेजा और गलत समर्थन के कारण ही आज भिवंडी में सांसद और विधायक सहित बहुमत से अधिक संख्या बल रखने के बावजूद मेयर मुक्त कांग्रेस हो गई है।
जानना होगा ढाई साल पुराना संदर्भ
इस पूरे घटनाक्रम को समझने के लिए ढाई वर्ष पूर्व जाना पड़ेगा। जब मनपा के चुनाव के टिकट बंटवारे में निष्ठावान कांग्रेसियों को बाईपास करते हुए जमकर पार्टी के टिकटों का बंदरबांट हुआ था। बजरिए माणिकराव ठाकरे तबके महाराष्ट्र प्रभारी मोहन प्रकाश की शह के कारण यह मामला इतना आगे बढ़ा था कि तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण द्वारा टिकट बंटवारे से अपना हाथ खींचकर मजबूरन सारा अधिकार स्थानीय कांग्रेस के सुपुर्द करना पड़ा था। क्योंकि इससे चंद दिन पहले भिवंडी के मजदूरों और कारीगरों ने मोहन प्रकाश के बनारस स्थित मकान का फर्नीचर सहित रंगाई पुताई का काम किया था।
भिवंडी के कांग्रेसी नगरसेवकों ने कदम-कदम पर प्रदेश कांग्रेस को ब्लैकमेल करते हुए उसे हमेशा नतमस्तक होने पर मजबूर किया है। यहां तक कि लोकसभा चुनाव के लिए सुरेश टावरे को टिकट न देने का दबाव बनाते हुए इन्हीं नगरसेवकों ने शिवसेना के बाल्या मामा को टिकट दिलाने के लिए इस्तीफा तक की धमकी दी थी। गनीमत यह रही कि मल्लिकार्जुन से मधुर संबंधों के चलते सुरेश टावरे को टिकट तो मिल गया। लेकिन कांग्रेस के पक्ष में भरपूर जन समर्थन के बावजूद उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा। क्योंकि अंदर खाने भाजपा के सांसद ने यहां के ज्यादातर नगरसेवकों को चुनाव में निष्क्रिय रहने और स्लो मतदान के लिए मैनेज कर लिया था।