फिल्म को इतने सलीके से बनाया गया है कि हर सीन का कोई न कोई मतलब है। सामान्य-सी लगने वाली कहानी को इस बेहतर तरीके से बनाया गया है कि आप जोरदार ठहाके मार कर हंसे बिना नहीं रह सकेंगे और साथ ही बीच-बीच में आपकी आंखें नम भी होती रहेंगी। अश्विन ने फिल्म के माध्यम से यह संदेश दिया है कि एक महिला परिवार के लिए अपने सपनों को कैसे दबा देती है और कैसे परिवार सपनों को फिर से जिंदा करने में मदद कर सकता है।
स्क्रिप्ट: कहानी कबड्डी की एक बेहतरीन खिलाड़ी कंगना रनौत (जया) की है। जो अपने पति जस्सी गिल (प्रशांत सचदेव) और बेटे यज्ञ भसीन (आदित्य) की देखरेख करने के साथ परिवार की जिम्मेदारियों को निभाते हुए, अपने सपने को जिम्मेदारियों के नीचे दबा देती है। खिलाड़ी कोटे से रेलवे में नौकरी करती है। वह ऑफिस जाती है, काम करती है, बॉस की डांट खाती है। बच्चे और पति के लिए जितना बन पड़े उससे ज्यादा करती है। सामान्य मिडिल क्लास की यह 32 वर्षीय महिला परिवार के लिए अपने सारे सपने छोड़ देती है।
कहानी में मोड़ तब आता है, जब उसके सात साल के बच्चे को पता चलता है कि मां कभी कबड्डी के लिए ही जीती थी। वह जिद पकड़ता है कि उन्हें वापस अपने सपनों को जीना चाहिए। इसके बाद शुरू होती है लंबे समय से खेल की दुनिया से बाहर रही जया का अपने सपने की तरफ लौटने/संघर्ष की कहानी। इसमें उसकी सबसे अच्छी सहेली रिचा चढ्ढा (मीनू) मदद करती है। यहां नायिका परिवार और सपने दोनों के बीच बैलेंस बनाते, हुए आगे बढ़ती है। हार जाने का डर, आगे बढ़ने पर कुछ छूट जाने का डर कहानी में बखूबी कहा गया है। कहानी की सबसे बड़ी खूबी है कि यहां पर कोई विलेन नहीं है। पूरी कहानी फिल्म देखते ही जाने तो बेहतर है।
डायलॉग पंच: “जब तुम्हें देखती हूं तो खुश होती हूं, जब आदित्य को देखती हूं तो खुश होती हूं, पर खुद को देखने पर खुश नहीं हो पाती” जैसे इमोशनल डॉयलाग के साथ “बम भोले” जैसे बेहतरीन पंच लाइन से भरी है यह फिल्म। हर सीन में पंच मिलेगा। कंगना के बेटे बने नन्हें यज्ञ भसीन ने अपने डायलॉग से पूरी फिल्म को दमदार बना दिया है।
ऐक्टिंग: कंगना…कंगना और कंगना… बेहतरीन अदाकारी से दर्शकों पर छा जाती हैं… सात साल के बच्चे का रोल अदा कर रहे यज्ञ ने लोगों के दिलों पर जबरदस्त छाप छोड़ी है। रिचा भी अपने किरदार में इस कदर डूबी हैं कि लगता है उनके बिना फिल्म वैसी नहीं होती, जैसी बन पड़ी है। जस्सी गिल ने भी अच्छा काम किया है। कह सकते हैं कि हर किरदार ने अपने हिस्से को बखूबी से थोड़ा ज्यादा निभाया है।
डायरेक्शन: यह एक मोटीवेशनल कहानी है, पर डायरेक्शन इसे बेहतरीन फिल्म बना देता है। कहना होगा कि अश्विनी अय्यर तिवारी ऐसी डायरेक्टर हैं, जो सामान्य सी कहानी को कुछ ऐसे कह जाएंगी कि लोग वाह किए बिना नहीं रह सकेंगे। फिल्म में आने वाले हर सीन का अर्थ है, एक पल भी जाया नहीं किया है। हर संवाद, घटना दृश्य एक दूसरे को पूरा करने जैसा जुड़ा हुआ है। कुछ ऐसा कि कुछ भी हटाने से कमी का एहसास हो उठे। यही डायरेक्शन की जीत भी है। सिनेमैटोग्राफी वाह है। लोकेशन्स और एडिटिंग भी परफेक्ट है।
क्यों देखें: मूवी में दिखाया है कैसे एक महिला अपने टैलेंट के दम पर कामयाबी और परिवार के बीच परिवार को चुनती है। यह भी बताया है कि टैलैंट की कोई उम्र नहीं होती। फिल्म बताती है, परिवार कैसा हो, दोस्ती कैसी हो, और सफलता के लिए मेहनत और लगन कैसी हो।
टोटल रिजल्ट: हर किसी को अपने परिवार के साथ देखनी चाहिए यह फिल्म।