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अच्छी तैयारी की कमी से ये ‘पानीपत’ भी खो दिया…

locationमुंबईPublished: Dec 05, 2019 09:09:17 pm

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Arun lal Yadav

समय — 173 मिनटनिर्देशक — आशुतोष गोवारिकरकलाकार — अर्जुन कपूर, कृति सैनन, संजय दत्त, मोहनीश बहल, पद्मिनी कोल्हापुरे, नवाब शाह, मंत्रारेटिंग — तीन

पानीपत

पानीपत

 

अरुण लाल

मुंबई. भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण हिस्से पर बनाई गई यह फिल्म अपनी भव्यता के कारण लोगों को पसंद तो आएगी, पर पहले हॉफ में कई बार ऐसा होगा कि दर्शक सोचने पर मजबूर होंगे कि यह क्या हो रहा है। सिनेमैटोग्राफी उतनी बेहतर नहीं हो सकी है, जितनी इस फिल्म से दर्शकों को उम्मीद थी। कलाकारों ने खराब प्रदर्शन नहीं किया है, पर ऐसा भी नहीं है कि लोगों के दिलों पर वे अपनी छाप छोड़ सकें।

कहानी
इस फिल्म की एक अच्छी बात है कि इतिहास के साथ छेड़छाड़ कम की गई है। कहानी बढ़ते मराठा साम्राज्य के वैभव से शुरू होती है। एक महान युद्ध जीतकर सदाशिव भाऊ (अर्जून कपूर) अपने साथियों के साथ लौटता है। यहां उसका बचपन का प्यार पार्वती बाई (कृति सेनन) मौजूद है। नाना साहब पेशवा (मोहनीश बहल) पत्नी की चिंता को देखते हुए राजनीति के तहत सदाशिव को सेना से निकाल कर धन मंत्री बना देते हैं। जहां सदाशिवभाऊ राज्य का धन बटोरने के लिए आधीन राजाओं को कड़ा पत्र लिखता है। मराठों के शासन से चिढ़ा हुआ नजीब- उद्- दौला (मंत्रा) अहमदशाह अब्दाली (संजय दत्त) को हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का नेवता देता है। अब्दाली के आगमन की सूचना पाकर मराठे अपनी तरफ से पेशवा सदाशिव को उसका मुकाबला करने भेजते हैं। कारवां कूच करता है, रास्ते के राजाओं को इस युद्ध में शामिल होने के अनुरोध करते हुए वे दिल्ली पर कब्जा करते हैं। फिर इसके बाद पानीपत के मैदान में युद्ध।

ओवरऑल

इतिहास पर बनी यह फिल्म दर्शकों को एक बार देखने पर पसंद आनी चाहिए पर हर कोई सोचेगा कि यह और बेहतर बनाई जा सकती थी। डॉयलॉग ठीक हैं, पर इतने दमदार नहीं कि सिनेमाहॉल से निकलते समय लोगों की जुबान पर हों। कुछ डायलॉग बेहतर हैं, तो उन्हें ठीक तरह से प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। इंटरवल के पहले की फिल्म हल्की-सी बिखरी हुई लगी। पेशवा को प्रेमिका और दूसरे पेशाओं के साथ नाचते-गाते दिखाने का तुक समझ में नहीं आता। अर्जुन कपूर ने काम ठीक किया है। पर वे फिल्म को उस तरह न पकड़ सके, जैसा कि बाजीराव में रणवीर सिंह ने पकड़ा था। कृति सेनन ने अच्छा काम किया है। संजय दत्त अपनी अदाकारी से दर्शकों को एक बार फिर आकर्षित कर रहे है। सिनेमैटोग्राफी ठीक-ठाक है। बड़े बजट और बेहतरीन लोकेशनों को भी सिनेमेटोग्राफर भुना नहीं पाए। कहानी को अच्छी तरह से कहने का प्रयास सफल दिखता है। पर इसे बेहतरीन फिल्म नहीं कहा जा सकता।
सभी कलाकारों ने ठीक-ठीक एक्टिंग की है। गाने औसत हैं, अजय अतुल ने फिर से एक तरह के म्यूजिक से फिल्म को सजाने का प्रयास किया है, जो दर्शकों को ठीक लग सकता है, पर इसमें नयापन नहीं है। इंटरवल के बाद फिल्म दर्शकों को पकड़ लेती है। कहानी की पकड़ इतनी अच्छी बनती है कि छोटी-मोटी गलतियां नजर ही नहीं आतीं। कुल मिलाकर इतिहास पर बनी यह फिल्म दर्शकों को एक बार देख सकते हैं। इस फिल्म के बारे में यह फिल्म खुद कहती है, सब कुछ था पेशवा के पास जीत के लिए, पर थोड़ी तैयारी की कमी के चलते उन्हें जीत हासिल नहीं हुई, पर वे हार कर भी हारे नहीं, उन्हें यश मिला, इस फिल्म को भी मिलता दिख रहा है।

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