यूं हुआ समाज सेवा की ओर झुकाव
बकौल अदातिया, मेरा बचपन महात्मा गांधी के पोरबंदर में घोर गरीबी में कटा। पिता मूंगफली बेच कर सात बच्चों का पेट भरते थे। जब मैं 14 साल का हुआ, तभी नौकरी करने लगा। मेरा घर अस्पताल के बगल में था। एक दिन काम से लौटने के बाद मैं घर के बाहर बैठा था। तभी एक बुजुर्ग ने मुझसे कहा, मेरा बेटा बहुत बीमार है, मुझे मेडिकल स्टोर तक पहुंचा दो। हमने मेडिकल स्टोर पहुंच कर दवाई ली। बूढ़े बाबा ने अपनी जेबें टटोल लीं, पर उसमें सिर्फ 70 रुपए ही थे। बिल 110 रुपए का बना था। उनकी आंखों में लाचारी थी। उसी दिन मुझे 175 रुपए पगार मिली थी। मैंने दवाई के पूरे पैसे भर दिए। मुझे अपार खुशी मिली। उसी दिन मैंने तय कर लिया कि बाकी जीवन जरूरतमंदों की सेवा में लगा दूंगा।
रिजवान बचपन से ही धार्मिक किताबें पढ़ते थे, जिनमें से दो बातें उन्होंने अपने जीवन में उतारीं। एक, सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठना और दूसरा, लोगों की सेवा करना। वे रोज सुबह तीन बजे उठते हैं, मानवता के लिए प्रार्थना करते हैं। रोजाना हर सुबह मन में एक सुंदर जीवन की काल्पनिक तस्वीर बनाते हैं और दिन भर उसे साकार करने का प्रयास करते हैं। वे कहते हैं इसमें बहुत ताकत होती है। रिजवान को 17 वर्ष की उम्र में अफ्रीका जाने का मौका मिला। 200 डॉलर पगार थी। वहां एक जनरल स्टोर में ईमानदारी से काम किया। वक्त-बेवक्त लोगों की सेवा भी की। धीरे-धीरे मेहनत रंग लाई। आज अफ्रीका में उनके खुद के 200 से ज्यादा स्टोर हैं। वे हर साल 25 करोड़ रुपए लोगों की सेवा में लगा देते हैं। अदातिया हमेशा अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा सेवा में लगाते रहे हैं।
13 सितंबर, 2014 को उनके मन में विचार आया कि क्यों न सेवा का कार्य संगठित तरीके से किया जाए। अगले ही दिन रिजवान अदातिया फाउंडेशन की नींव पड़ गई। अब वे हर महीने भारत आकर लोगों की सेवा करते हैं। गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में अलग-अलग कार्य कर रहे हैं। झारखंड में लेप्रोसी अस्पताल बनवा कर वहां अच्छे डॉक्टर नियुक्त किए, जिसका लाभ 30 हजार से ज्यादा लोग उठा चुके हैं।