दो वर्षों से जारी शोध को मिली सफलता
मुजफ्फरपुर स्थित मुशहरी अनुसंधान केंद्र में 2018 से ही लीची के छिलके और पत्तों से वर्मी कंपोस्ट तैयार करने का शोध किया जा रहा था। अब जाकर इसे सफलता हासिल हुई है। पौधों पर प्रयोग किया गया तो नतीजे जानकर वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित रह गए। अन्य वर्मी कंपोस्ट की तुलना में इसका असर 15 प्रतिशत अधिक पाया गया। प्रयोग लीची के पौधों पर ही किया गया। गौरतलब है कि लीची अनुसंधान केंद्र की पांच हेक्टेयर ज़मीन पर लीची की फसलें लगी हैं। यहां लीची प्रोसेसिंग यूनिट भी लगी हुई है।
तीन चार माह में ही होता है असर
लीची के पत्तों और छिलकों से तैयार वर्मी कंपोस्ट का पौधों पर तीन चार महीनों में ही व्यापक असर दिखने लगा। मिट्टी की गुणवत्ता में भी खूब बढ़ोत्तरी देखी गई। लीची अनुसंधान केंद्र ने 2018 से जारी शोध के बाद पांच टन छिलके और पत्तों से डेढ़ टन वर्मी कंपोस्ट तैयार किया है। लीची के छिलके और पत्तों से तैयार वर्मी कंपोस्ट में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, प्रोटीन, लौह अयस्क और माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की अधिकता पाई गई। लिहाजा इसका पौधों पर बढिय़ा और तुरंत असर देखा जा रहा है।
वर्मी कंपोस्ट में नाइट्रोजन की अधिकता
लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक विशालनाथ के अनुसार केले तथा घास से तैयार वर्मी कंपोस्ट की तुलना में लीची के छिलके और पत्तों से तैयार वर्मी कंपोस्ट में नाइट्रोजन प्रचूर मात्रा में पाया जाता है। केले के तने से तैयार वर्मी कंपोस्ट में 1.92 प्रतिशत तथा घास से तैयार वर्मी कंपोस्ट में 1.33 से 1.75 प्रतिशत नाइट्रोजन पाया गया। जबकि लीची के छिलके और पत्तों से तैयार वर्मी कंपोस्ट में 1.96 प्रतिशत से 12.36 प्रतिशत तक नाइट्रोजन पाया जा रहा है। निदेशक विशालनाथ के मुताबिक यह किसी भी पौधे के विकास में काफी सक्रियता लाने का माध्यम बन सकेगा। लीची के छिलके और पत्ते हर मौसम में हजारों टन बर्बाद हो जाते हैं। इस सफल प्रयोग के साथ ही अब पत्तों और छिलकों की उपयोगिता बढ़ जाएगी।