नर कंकाल अस्पतालों के आसपास और नदी घाटों पर मिलना आम बात सी है। यह बिहार की बदहाल प्रशासनिक कार्यशैली का ही नुस्खा है। अस्पतालों में लावारिस शवों को जलाने या दफनाने के सरकारी नियमों का पालन भले कागजों पर हो जाता पर सच्चाई में अधिकांशतः यह फलीभूत हो नहीं पाता। अक्सर ऐसे लावारिस शव निबटा दिए जाते हैं।
दूसर अहम पक्ष यह है कि लावारिस लाशों को नियमों की अनदेखी कर मेडिकल छात्रों की पढ़ाई के लिए बेचने का गोरखधंधा भी यहां बखूबी चलता आ रहा है। इस तरह नर कंकालों को बेचने और खरीदने वाला गिरोह भी काम करता है। ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो इसे पुष्ट करती हैं। नर कंकाल मिलना मानवीयता पर सवाल ज़रूर खड़ा करता है पर बिहार में मानवता की परिभाषाएं खुद तारतार दिखती हैं। ( Acute Encephalitis Syndrome ) एईएस पीड़ित बच्चों की लाशें लावारिस फेंक दी जाएं और तुरंत—फुरंत वे नर कंकाल बन जाएं यह गैरमुमकिन लगता है। क्योंकि बच्चे हालत बिगड़ने पर परिजनों के द्वारा ही अस्पताल ले जाए जा रहे हैं और यदि मौत हो गई तो परिजन ही शव के साथ रोते पीटते लौट रहे हैं।
दूसरा यह भी बड़ा पक्ष है कि सरकार ( Bihar government ) ने बीमारी से मरने वालों और इलाज के नाम पर साधन उपलब्ध कराने के उपाय तो कर दिए पर बीमारी से बचाव और बचाव के उपाय को लेकर अभी भी कुछ नहीं कर सकी है। ऐसे में यह संभव नहीं कि लावारिस बच्चे इलाज को लाए गये और मौत के बाद उन्हें निबटा दिया गया। फिर बच्चों के शव मिलते तो कहा भी जा सकता। सिर्फ नरकंकाल और वह भी कुछ अंगों का मिलना सिर्फ गोरखधंधे और लावारिसगिरी की ही पुष्टि करता है।
मामले की पोस्टमार्टम कराने के निर्देश अस्पताल अधीक्षक एस के शाही ने दिए हैं। जिलाधिकारी आलोक रंजन घोष ने कहा कि मामले की जांच के बाद सच सामने जल्द ही लाएंगे। सूबे के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय से संपर्क कर सवाल का जवाब जानना चाहा पर बैठक में होने के कारण वह फोन लाइन पर अनुपलब्ध रहे।