नागौर

फैसले पर संशय, हुए तो एक भी पीडि़ता क्यों नहीं पहुंची बाकी सरकारी मुआवजा लेने

संदीप पाण्डेय
नागौर. तकरीबन सात साल में दलित बलात्कार के एक भी मामले में कोई आरोपी दोषी साबित नहीं हुआ है। यानी किसी आरोपी को सजा नहीं मिली। ये हम नहीं कह रहे आंकड़े बता रहे हैं। ऐसा एक मामला नहीं हुआ जिसमें फैसला होने के बाद पीडि़ता मुआवजे की बची राशि लेने थाने या सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग पहुंची हो। मतलब पूरे नागौर जिले में एक जनवरी 2015 से 23 नवंबर 2021 तक हुए बलात्कार के प्रकरण की स्थिति तो यही बताती है।

नागौरNov 24, 2021 / 10:30 pm

Sandeep Pandey

एक जनवरी 2015 से 23 नवंबर 2021 तक की सच्चाई-1565 मामले दर्ज,457 में एफआर तो 42 प्राथमिक जांच में रद्द

फैसले हुए तो बचे मुआवजा लेने तक यहां कोई क्यों नहीं पहुंचा? या फिर मामले से पहले ही आपसी समझौते ने न्याय की कहानी को ही बदल डाला।सूत्रों के अनुसार नागौर जिलेभर ही असलियत यही है। करीब इन सात साल में 1565 मामले दर्ज हुए। ये वो मामले हैं जिनमें दलित बालिका/महिला से बलात्कार/सामूहिक बलात्कार में मुआवजा देने का प्रावधान है। इनमें से 42 मामले तो प्रारंभिक जांच के बाद भी रद्द कर दिए गए। ये प्राथमिक तौर पर ही झूठे पाए गए थे। यही नहीं 457 मामलों में अंतरिम रिपोर्ट (एफआर) लग गई। मतलब साफ है कि ये प्रकरण भी झूठे/रजामंदी की शर्तों पर भेंट चढ़ गए। इस तरह 599 दलित बलात्कार के प्रकरण कुछ समय के बाद ही कानूनी प्रक्रिया से बाहर हो गए। करीब चालीस फीसदी मामले ऐसे ही निकले जिनमें आरोपी पक्ष पर झूठा मामला दर्ज था या फिर अन्य कारणों से पीडि़त पक्ष और आरोपी पक्ष के बीच समझौता हो गया।यहां बताते चलें कि इन मामलों में भी एफआईआर और चालान पेश होने तक की मुआवजा राशि पीडि़ता ने उठा ली। मजे की बात है कि इस तरह का कोई नियम नहीं है जहां मामले में एफआर लगने के बाद इन पीडि़ताओं से इस राशि को वापस लिया जा सके। इस तरह कुल 1567 में से 1258 मामलों में एफआईआर दर्ज कराने के बाद मुआवजा दे दिया गया जबकि 505 प्रकरण में चालान पेश होने पर मुआवजे की दूसरी किस्त भी दे दी गई। बलात्कार/सामूहिक बलात्कार/हत्या की लगभग 47 धारा में यह दिया जाता है। शून्य से शुरुआत यह राशि सवा आठ लाख रुपए तक है। किसी मामले में एक चौथाई एफआईआर, पचास फीसदी चालान पेश करने और 25 फीसदी फैसला होने का प्रावधान है तो किसी एफआईआर पर दस तो चालान पेश होने पर चालीस फीसदी और बाकी फैसला होने के बाद देने का नियम है।
एक का भी पूरा नहीं

सूत्रों की मानें तो तकरीबन सात साल के दौरान एक भी मामले में पीडि़त पक्ष ने फैसले के बाद का बकाया भुगतान नहीं उठाया। एक बार तो इससे यही लगता है कि मामले अभी न्यायालय में विचाराधीन हैं। वैसे तो फैसला होने के बाद पीडि़त पक्ष को इसकी जानकारी संबंधित थाने को देनी होती है जो आगे की प्रक्रिया के लिए सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग को ब्योरा देकर यह दिलवाने का काम करता है। अभी तक बलात्कार का एक भी मामला ऐसा नहीं है तो फैसले के बाद भुगतान लेने यहां तक आया हो। दलित बालिका/महिला से बलात्कार करने वाला ओबीसी/सवर्ण जाति का हो तभी पांच लाख और सामूहिक बलात्कार में सवा आठ लाख तक के मुआवजा दिया जाता है। पड़ताल तो इस बात की होनी जरूरी है कि बाकी मुआवजा लेने वाला क्या एक भी फैसला नहीं हुआ या फिर जागरूकता की कमी से कोई यह लेने ही नहीं पहुंचा।
डीएनए की देरी पर एफआईआर पर पहली किस्त

सूत्र बताते हैं कि पहले एफएसएल की डीएनए रिपोर्ट के बाद पीडि़ता को पहली किस्त देने का नियम बनाया गया था। डीएनए रिपोर्ट मिलने में होती देरी के चलते एफआईआर पर मुआवजे की पहली किस्त देना तय कर दिया गया। इसके बाद यही होने लगा। दलित बालिका/युवती/बलात्कार की एफआईआर पर उन्हें पहली किस्त दी जाने लगी। आंकड़ो के मुताबिक 1565 में से 1258 पीडि़ताओं को एफआईआर दर्ज करने पर पहली और 505 को चालान पेश होने पर दूसरी किस्त मिल चुकी है।
झूठे या फिर समझौते

दलित बलात्कार के करीब चालीस फीसदी मामले सच से परे होते हैं। करीब आधे मामले रजामंदी से सुलझ जाते हैं। राहत राशि झूठे पीडि़तों अथवा समझौता करने वालों को करीब आधी तो मिल जाती है, जिसे वापस भी नहीं देना पड़ता। सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग के आंकड़ों में 499 मामले इसी पर खत्म हो गए। एक जनवरी 2017 से 23 नवंबर 2021 तक कुल 1565 मामले दर्ज हुए।
इनका कहना है

करीब चालीस फीसदी मामले झूठे या फिर उनमें एफआर लग चुकी है। अब किसी मामले में फैसले की जानकारी तो हमें नहीं मिल पाई है, क्योंकि मुआवजे की बकाया राशि लेने अभी तक एक पीडि़ता यहां नहीं पहुंची है। संबंधित थाने के समक्ष फैसले की जानकारी के बाद बाकी मुआवजा देने का सिस्टम है।
-रामदयाल मांजू, सहायक निदेशक सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग नागौर०००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००

कई मामलों में दोष साबित नहीं हो पाने से आरोपी बरी हो जाते हैं। कई में रजामंदी कर लेते हैं। कुछ लोग शायद फैसले के बाद इसे लेने की जानकारी से अनभिज्ञ हो। एक भी मामला ऐसा नहीं पहुंचा, आश्चर्यजनक है।
-सतपाल सिंवर, एडवोकेट नागौर
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