निरमा से बड़ा एक भाई दयालाराम व एक बहन मंजू है। दयालाराम उस समय तीन साल का था और मंजू साढ़े चार साल की। परिस्थितियां काफी विकट थी, लेकिन फिर भी वीरांगना रूकीदेवी ने हिम्मत नहीं हारी और बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने का प्रयास किया, जिसकी बदौलत आज तीनों बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। सबसे छोटी बेटी निरमा आज अपनी मां के पास रहकर तैयारी कर रही है।
पिता ने गांव का नाम रोशन किया अपने पिता को तस्वीरों में देखकर बड़ी हुई निरमा ने बताया कि पिता के शहीद होने के बाद उसके परिवार को कई परेशानियों का सामना करना पड़ा, लेकिन पिता के बलिदान एवं उन्हें मिले सम्मान के आगे वे सब बौनी हो गईं। पिता ने देश के लिए लड़ते हुए दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए।
निरमा कहती है –
‘तन समर्पित, मन समर्पित और यह सारा जीवन समर्पितचाहती हूं मातृभूमि, तुझको कुछ और भी दूं।’ राजस्थान पत्रिका ने दिया बड़ा सम्बल प्रभुराम की वीरांगना रूकीदेवी व पुत्री निरमा ने बताया कि करगिल युद्ध
Kargil war के बाद राजस्थान पत्रिका की ओर से जुटाए गए कोष में से उन्हें जो सहायता मिली, उससे उन्हें काफी सम्बल मिला। सरकार की ओर से की गई घोषणाएं भी लगभग पूरी हो गईं। हालांकि शहीद के नाम पर मिले पेट्रोल पम्प को वे ज्यादा दिन नहीं चला पाए।
देश के काम आ गए
वीरांगना रूकीदेवी ने बताया कि बच्चे छोटे थे और पति देश के काम आ गए। ऐसा समय हमारे लिए किसी पहाड़ टूटने से कम नहीं था, लेकिन उन्होंने भी भारत माता की रक्षा करते हुए अपने प्राण बलिदान किए। यह सोचकर फिर सम्बल मिलता और बीस साल का कठिन सफर तय कर लिया। आज बच्चे बड़े हो गए हैं।