यह दावा किया है भारतीय शिक्षा विज्ञान अनुसंधान संस्थान, माहौली के रिसर्च स्कॉलर रवींद्र देवड़ा ने। यह अवशेष रेलवे स्टेशन के पीछे, सुभाष कॉलोनी स्थित एक खेत में मिले हैं। इससे पहले भी जिले के जायल कस्बे के पास कटौती गांव में शुतुरमुर्ग के अंडों के खोल मिल चुके हैं। कठौती के पास पाए जाने वाले शुतुरमुर्ग के अंडों का इतिहास भी सैकड़ों साल पुराना है। अभी की खोज से इस मान्यता को बल मिला है कि रेगिस्तान की धरती कभी घास के मैदानों से आच्छादित थी।
रवींद्र देवड़ा मूलत: नागौर के रहने वाले हैं। स्कूल की पढ़ाई के बाद ग्रेजुएशन जयपुर के सुबोध कॉलेज से की, फिर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एमए (भूगोल), इसके बाद बड़ौदा के एमएस यूनिवर्सिटी से पुरातत्व में एमए की। अभी पश्चिमी राजस्थान में वन्यजीवों के पुराने अवशेष के साथ जलवायु परिवर्तन पर शोध कर रहे हैं। ये सात बहनें और तीन भाई हैं, इनके पिता मोहनलाल सरकारी कर्मचारी थे।
बहती थी नदियां नागौर शहर के पास में हाल ही में मिले जीवाश्म से पता चला है इस प्रकार के पक्षी कभी पश्चिमी राजस्थान की धरती पर भी पाए जाते थे। देवड़ा का कहना है कि जहां जीवाश्म मिले हैं, उसे देखने से पता चलता है कि खेत में गहरी जुताई के कारण शायद यह अवशेष ऊपर आ गए। ऐसा अनुमान है कि यह अधिकतम दो फीट तक जमीन में दबे हुए थे। डीडवाना समेत अन्य स्थानों की मिट्टी में नमी को देखते हुए यह भी संकेत मिले हैं कि सूखा कहे जाने वाले इस स्थान में कभी नदियां बहा करती थीं, शुतुरमुर्ग जैसे कई जीव खासतौर से ऐसे ही इलाके में पाए जाते थे। इससे पूर्व में नागौर जिले के ही भदवासी गांव से जिप्सम के जमाव में हाथी के जीवाश्म भी मिले थे। शहरीकरण, खनिजों का दोहन एवं कृषि के लिए जुताई के दौरान पुरातात्विक स्थलों एवं जीवाश्म का नष्ट होना आम बात है। समय रहते इनका शोध एवं अध्ययन के साथ ही जन सामान्य में इसकी जागरुकता आवश्यक है।
संकेत तो यह भी मिले हैं... देवड़ा का कहना है कि अभी तक तो समय-समय पर मिले अवशेषों से जाहिर होता है कि शुतुरमुर्ग पश्चिमी राजस्थान में स्वच्छंद विचरण करते थे जो वर्तमान में सिर्फ अफ्रीका महाद्वीप में ही पाए जाते हैं। इस प्रजाति का यहां से विलप्त होने का कारण मानवीय हस्तक्षेप अथवा जलवायु परिवर्तन माना जा सकता है। डीडवाना क्षेत्र के आसपास हजारों साल पुराने आदम संस्कृति के प्राचीनतम अवशेष मिले हैं। उस समय तीर कमान और भालों का उपयोग व्यापक तौर पर शिकार में किया जाने लगा था। रवींद्र का कहना है कि मानव द्वारा उपयोग में लिए गए शुतुरमुर्ग के अंडों के खोल से हमें प्राचीन संस्कृतियों की महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है और इनकी रासायनिक संरचना से तत्कालीन जलवायु दशाओं का भी आकलन किया जा सकता है। इस खोज से अवशेषों की तिथि निर्धारण व तात्कालिक पर्यावरण की जानकारी की जाएगी। रवींद्र का कहना है कि वे शोध कार्य के चलते काफी राज्यों में भ्रमण कर चुके हैं।