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हाथ के चाक अब हुए बीती बात, मशीन से बनने लगे दीपक

locationनागौरPublished: Nov 03, 2018 12:03:28 am

Submitted by:

Ravindra Mishra

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metti ke dipak

कुचेरा. एक जमाना था, जब चाईनीज लाईटों व मोमबत्तियों की ज्यादा पहुंच नहीं थी। कस्बों व गांवों में मिट्टी के दीपक ही दीपावली की रौनक बनते थे। उस जमाने में कुम्भकार महीनों पहले हाथ से चलने वाले पत्थर के चाक की सहायता से दीपक उतारने में लग जाते थे। कुम्भकार परिवार तालाबों से मिट्टी लाकर उसे कूटपीसकर उससे पत्थर के हाथ से घूमने वाले भारीभरकम चाक पर दीपक उतारे जाते थे। धीरे-धीरे चाईनीज लाईटें कस्बों और गांवों तक पहुंची और दीपक केवल दस्तूर के रह गए। पिछले चार पांच साल से लोगों में चाईनीज सामान के प्रति उपजे आक्रोश व जगह- जगह चाईनीज माल की होली जलाने के बाद एक बार फिर से दीपक का जमाना आया है। अब दीपक पत्थर के चाक से नहीं, बल्कि मशीनरी के इस युग में बिजली से चलने वाले चाक से बन रहे हैं। इस मशीनी चाक से एक कुम्भकार प्रतिघण्टा ५००से १००० तक दीपक उतार लेता है।

अब वो पुराने वाली बात नहीं

कुम्भकार किशोरराम सिंघाटिया ने बताया कि परम्परा के अनुसार उनका परिवार दीपोत्सव के लिए मिट्टी के दीपक उतारकर बेचते हैं। उनके उतारे दीपक क्षेत्र व जिले सहित अजमेर, जयपुर व जोधपुर तक भेजे जाते हैं। होलसेल रेट पर जहां ४०० से ६०० रुपए के एक हजार दीपक बिक रहे हैं, वहीं रिटेल रेट आठ सौ से एक हजार रुपए प्रति हजार दीपक के होते हैं। उन्होनें बताया कि इलेक्ट्रोनिक जमाने के कारण अधिकांश लोग रंगीन लाईटों व मोमबत्ती आदि का उपयोग कर रहे हैं, ऐसे में मिट्टी के दीपक शगुन के रूप में ही जलाए जाते हैं।
पूर्व में आसानी से चल जाता था संयुक्त परिवार

कुम्भकार परिवार ने बताया कि पहले वे लोग कस्बों व गांव ढाणियों में घर घर घूमकर दीपक बांटते थे, दीपकों के बदले उन्हें भरपूर अनाज मिल जाता था, जिससे वर्षभर के खर्चे आदि निकल जाते थे। बड़ा संयुक्त परिवार भी आसानी से चल जाता था। लेकिन वर्तमान भौतिकवादी युग में केवल दीपक, मिट्टी के बर्तन आदि से कुछ नहीं हो पाता, ये तो मौसमी व्यापार रह गया है। इनके साथ भी अन्य कामकाज करने पड़ते हैं, उसके बावजूद एकल परिवार भी मुश्किल से चल पाते हैं।

एण्टिक पीस बनकर रह गए चाक

बाजार में बिक रही रंगीन लाईटों, मोमबत्ती व मशीन से चलने वाले चाक की बदौलत हाथ से चलने वाले पत्थर के चाक अब केवल एण्टिक पीस बनकर रह गए हैं। पत्थर के भारीभरकम चाक का उपयोग केवल शादी ब्याह व मांगलिक कार्यों में चाक पूजन में किया जाता है। ये चाक दीवारों के सहारे खड़े अपने अतीत पर आंसू बहाते नजर आते हैं।
नहीं रहा गुल्लक का जमाना

मिट्टी के दीपक के साथ दीपावली के मौके पर बच्चे, युवक व युवतियां अपनी बचत का गुल्लक भी बदलते थे। वे आकर्षक मिट्टी के गुल्लक भी दीपावली के अवसर पर खरीदकर बदलते थे। दीपावली पर पुराना गुल्लक फोडक़र बचत के पैसे गिने जाते थे। गुल्लक को लेकर बच्चे व युवा उत्साहित रहते थे। वर्तमान में ताले लगे गुल्लक खरीदकर जब मन चाहे खोल लिए जाते हैं। इससे वो उत्साह भी बच्चों में नहीं देखने को मिल रहा।

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