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दीपावली का सामान लाने के लिए बैलगाड़ी की करते थे सवारी

locationनागौरPublished: Oct 23, 2019 12:14:22 pm

Submitted by:

Sandeep Pandey

चौसला. आधुनिकता की भागदौड़ दीपावली पर्व पर हावी होती जा रही है। आज से सात दशक पहले दीपावली पर्व मनाने का तरीका अलग था हम बात कर रहे है कस्बे की सबसे वृद्ध 96 वर्षीय महिला गुलाब देवी पत्नी नारायणराम मीणा की।

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चौसला. आधुनिकता की भागदौड़ दीपावली पर्व पर हावी होती जा रही है। आज से सात दशक पहले दीपावली पर्व मनाने का तरीका अलग था हम बात कर रहे है कस्बे की सबसे वृद्ध 96 वर्षीय महिला गुलाब देवी पत्नी नारायणराम मीणा की। उन्होंने मंगलवार को अपने बचपन से लेकर अब तक की दीपावली पर्व से सम्बंधित सारी यादें बताई। वृद्धा गुलाब देवी ने बताया कि मेरी शादी 14 वर्ष की उम्र में हो गई थी। हमारे बचपन मेेंं विवाहित महिलाएं दीपावली, होली पर्व पर ससुराल में नहीं रहकर पीहर में महोत्सव का आनन्द लेती थी। पहले पक्के मकान गिने-चुने ही नजर आते थे महिलाएं कच्चे घरों की साफ-सफाई पुताई व आंगन में पांडू के मांडने व घर का सामान लाने की तैयारी में एक माह पहले ही जुट जाते थे। दीपावली पर चावल-दाल में डालने के लिए बूरा महिलाएं पत्थर की चाकी से पीसकर बनाती थी। उस समय बूरा बाजार में नहीं मिलता था। लक्ष्मी पूजन के लिए सेव, गन्ना आदि सामान सांभर से समूह में पैदल या बैलगाड़ी से जाकर दस दिन पहले लाकर रख देते थे। बाजारों में भीड़ पन्द्रह दिन पहले से ही लग जाया करती थी। आज आधुनिकता की दौड़ में दीपावली पर्व फीका होने लगा है। पहले के दिनों में लक्ष्मी पूजन के दिन आस-पास के लोग व परिवार के सभी सदस्य एक थाली में खाना खाते थे। पहले इतनी भागदौड़ नहीं थी दीपावली के दूसरे दिन गांव के बुजुर्ग लोग चौपाल पर एकत्रित होकर गांव की समस्या पर चर्चा करते थे। तथा एक दूसरे के घर पर जाकर रामा-श्याम कर व्यंजनों का आनन्द उठाते थे तथा एक दूसरे को गले लगाकर प्रेम का संदेश देते थे।
अनाज के बदले लेते दीपक व रुई

गुलाब देवी ने बताया कि आज तो दीपक व रुई बाजार जाकर रूपयों में खरीदते है। हमारे जमाने में दीपक व रूई बेचने वाले खुद गांव में घर-घर आकर अनाज के बदले घरों को रोशन करने के लिए दीपक-रुई देकर जाते थे। पहले विद्युत से जलाई जाने वाली रंग-बिरंगी लडिय़ां लोग जानते ही नहीं थे मिट्टी के दीयों से ही रोशनी करते थे। हमारे बचपन में गांवों में तो क्या नावां-सांभर जाने के लिए भी पक्की सड़क नहीं थी अधिकतर लोग बैलगाड़ी या ऊंटगाड़ी पर यात्रा करते थे। सुतली बंदी बोतल में मिट्टी का तेल लाकर घर में उजाला करने के लिए चिमनी जलाते थे। ज्यादातर कच्चे घर झूपे और छप्पर ही होते थे।
त्योहार पर मोहल्ले की महिलाएं समूह में खरीदारी के लिए परिवार सहित मंगल गीत गाते हुए बैलगाड़ी पर बैठकर जाती थी। उस समय का बैलगाड़ी में जाना मुझे आज भी याद है।

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