scriptजीव मात्र में आत्मसंतुष्टि का भाव ही सत्संग की यर्थाथता | The feeling of self-realization in the soul is the rightness of satsan | Patrika News

जीव मात्र में आत्मसंतुष्टि का भाव ही सत्संग की यर्थाथता

locationनरसिंहपुरPublished: Aug 11, 2019 07:14:24 pm

Submitted by:

Amit Sharma

जीव मात्र में आत्मसंतुष्टि का भाव ही सत्संग की यर्थाथता

The feeling of self-realization in the soul is the rightness of satsang

The feeling of self-realization in the soul is the rightness of satsang

जीव मात्र में आत्मसंतुष्टि का भाव ही सत्संग की यर्थाथता
चातुर्मास के दौरान प्रवचन श्रृंखला जारी

नरसिंहपुर/करेली-बरमान खुर्द स्थित धर्मशाला एवं सत्संग भवन में चातुर्मास कर रहे तपोनिष्ठ संत षण्मुखानंद महाराज द्वारा प्रतिदिन के उपदेश में श्रीमद् भागवत गीता की विस्तृत मीमांसा की जा रही है। उपदेश में स्वामी जी ने कहा कि गीता जी प्रत्येक समय में आपके अनुकूल हो जाएंगी। आप हमेशा भगवान को हृदय में रखो। आप भले शरीर में हो पर शरीर से परे आत्मा में निवास करो। योग यानी प्राप्त करना,संपूर्ण ऊर्जा से प्राप्त करना ही योग है। आपने जो प्राप्त किया उसे सुसंचालित करना क्षेम है। हालांकि वह भी भगवान आप से करा रहे हैं। पूर्वजों से प्राप्त अथवा स्वयं के परिश्रम से प्राप्त, प्रत्येक वस्तु परमात्मा की दी हुई है। उसमें लिप्त मत रहो, उसे भगवान की ही मानो, आप सिर्फ उपयोगकर्ता हो। जगत में जो है सब भगवान का है। आपका हर सामथ्र्य भगवान का दिया हुआ है। भगवान का आभार व्यक्त करते हुए प्रत्येक वस्तु ग्रहण करो। किसी वस्तु में असक्त मत रहो। जो दिख रहा है वह माया है। जो मिले उसमें संतुष्ट हो जाएं तब योग कार्य में आ सकते हैं। संतुष्टि मन से आना चाहिए किसी वस्तु के आने से संतुष्टि का आना संभव नहीं है। आपकी इच्छाओं का अंत नहीं है। लौकिक और अलौकिक उन्नति मानव मात्र को नहीं जीव मात्र को भी करना चाहिए। परंतु उसमें आसक्ति ना हो। सत्संग की यथार्थता यह है कि आपमें आत्म संतुष्टि होना चाहिए। सत्संग परिस्थितियों में संघर्ष करने का सामथ्र्य देता है। व्यास जी ने माया के दो रूप लिखे हैं कंचन और कामिनी परंतु अब का जगत कुछ और है इसमें माया के दो रूप मोबाइल और इंटरनेट हो गए हैं। वर्णक्रम की चर्चा करते हुए पूज्यश्री ने कहा कि भगवान का वर्णक्रम है कि जो भगवान को भजता रहता है वह ब्राह्मण है। जिसका जो गुण, कर्म है उस अनुसार उसका वर्ण हो गया। शास्त्र कहते हैं जन्म से तो सभी शूद्र हैं संस्कार से विप्र हो जाते हैं। एक संत के चार लाइनों के संदेश को बताते हुए कहा कि उन्होंने जीवन के 4 मंत्र दिए हैं। आप भगवान को, अपने इष्ट को फू ल नहीं है तो प्रतिदिन कम से कम एक पत्ता चढ़ाने का प्रयत्न करो। गाय को कुछ नहीं खिला सकते तो प्रतिदिन एक मु_ी घास तो जरूर दो। आप भले ही गरीब हो, सूखी रोटी खाते होए पर उसमें से भी कोई मांगने आए तो उसे आधी रोटी दो। यह तीन कार्य नहीं भी कर सकते तो सिर्फ इतना करो कि अपनी वाणी से ऐसा बोलो कि कभी किसी को ठेस ना पहुंचे।
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