अंग्रेजों के जमाने का कानून है राजद्रोह
देश में इस कानून का लंबे वक्त से विरोध हो रहा है। विरोध करने वाले लोग तर्क देते हैं कि ये अंग्रेजों के जमाने में बना है। ब्रिटिश शासन में ही साल 1870 में इसे बनाया गया था यानी की यह 152 साल पुराना कानून है। इस कानून का इस्तेमाल अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत करने और विरोध करने वाले लोगों पर किया जाता था। तब इस कानून के तहत कई लोगों को उम्रकैद की सजा दी गई थी। देश में पहली बार साल 1891 में बंगाल के एक पत्रकार जोगेंद्र चंद्र बोस पर राजद्रोह लगाया गया था। वो ब्रिटिश सरकार की आर्थिक नीतियों और बाल विवाह के खिलाफ बनाए गए कानून का विरोध कर रहे थे।
क्या है राजद्रोह कानून?
सरकार के खिलाफ गतिविधि को राजद्रोह कानून के तहत राजद्रोह माना जाता है। भारतीय दंड संहिता के अनुसार धारा 124 ए के तहत अगर कोई व्यक्ति सरकारी के खिलाफ कोई लेख लिखता है, या ऐसे किसी लेख का समर्थन करता है तो वह राजद्रोह है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करता है या संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो वह राजद्रोह है। ऐसा करने वाले व्यक्ति के खिलाफ राजद्रोह कानून के तहत केस दर्ज हो सकता है। देश विरोधी संगठन से किसी भी तरह का संबंध रखने या उसका सहयोग करने वाले के खिलाफ भी राजद्रोह का केस दर्ज हो सकता है। इस कानून के तहत दोषी को तीन साल की सजा या जुर्माना या फिर दोनों लगाया जा सकता है।
किन-किन पर लगा देशद्रोह का कानून और क्या थे मामले?
– 1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं के खिलाफ किया था। महात्मा गांधी पर इसका इस्तेमाल वीकली जनरल में ‘यंग इंडिया’ नाम से आर्टिकल लिखे जाने की वजह से किया गया था। यह लेख ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखा गया था। इसके अलावा देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और भगत सिंह आदि स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके “राजद्रोही” भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये दोषी ठहराया गया था।
– स्वतंत्रता के बाद बिहार के रहने वाले केदारनाथ सिंह पर 1962 में राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज कर लिया था। लेकिन इस पर हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों के संविधान पीठ ने भी अपने आदेश में कहा था कि राजद्रोही भाषणों और अभिव्यक्ति को सिर्फ तभी दंडित किया जा सकता है, जब उसकी वजह से किसी तरह की हिंसा या असंतोष या फिर सामाजिक असंतुष्टिकरण बढ़े। इस पर SC ने एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था। इस मामले में फेडरल कोर्ट ऑफ इंडिया से सहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ केस में व्यवस्था दी कि सरकार की आलोचना या फिर प्रशासन पर कमेंट भर से राजद्रोह का मुकदमा नहीं बनता। सुप्रीम कोर्ट की संवैज्ञानिक बेंच ने तब कहा था कि केवल नारेबाजी राजद्रोह के दायरे में नहीं आती।
– 2010 को बिनायक सेन पर नक्सल विचारधारा फैलाने का आरोप लगाते हुए उन पर इस केस के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। बिनायक के अलावा नारायण सान्याल और कोलकाता के बिजनेसमैन पीयूष गुहा को भी देशद्रोह का दोषी पाया गया था। इन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी लेकिन बिनायक सेन को 16 अप्रैल 2011 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जमानत मिल गई थी।
– 2012 में काटूर्निस्ट असीम त्रिवेदी को उनकी साइट पर संविधान से जुड़ी भद्दी और गंदी तस्वीरें पोस्ट करने की वजह से इस कानून के तहत गिरफ्तार किया गया। यह कार्टून उन्होंने मुंबई में 2011 में भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए एक आंदोलन के समय बनाए थे।
– तो वहीं 2012 में हीं तमिलनाडु सरकार ने भी कुडनकुलम परमाणु प्लांट का विरोध करने वाले 7 हजार ग्रामीणों पर देशद्रोह की धाराएं लगाईं थी।
– 2015 में हार्दिक पटेल कन्हैया कुमार से पहले गुजरात में पाटीदारों के लिए आरक्षण की मांग करने वाले हार्दिक पटेल को गुजरात पुलिस की ओर से देशद्रोह के मामले के तहत गिरफ्तार किया गया था।
आजादी के 75 साल बाद भी क्यों खत्म नहीं किया जा सका राजद्रोह कानून?
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से पिछले साल सुनवाई के दौरान जब सवाल किया की इस कानून को क्यों खत्म नहीं कर दिया जाता। इसके जवाब में गृह मंत्रालय ने कहा कि “राजद्रोह के अपराध से निपटने वाले आईपीसी के तहत प्रावधान को ख़त्म करने का कोई प्रस्ताव नहीं है”। साथ ही सरकार ने कहा कि “राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए प्रावधान को बनाए रखने की आवश्यकता है”। यानी की ये देश की एकता और अखंडता बनाए रखने का काम करता है। साथ ही इस कानून का काम राज्य की स्थिरता को बनाए रखना भी है। यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है। कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
आपको बता दें, राजद्रोह के कानून को लेकर संविधान में विरोधाभास भी है, जिसे लेकर अक्सर विवाद उठते रहे हैं। दरअसल, जिस संविधान ने राजद्रोह को कानून बनाया है, उसी संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भारत के नागरिकों का मौलिक अधिकार बताया गया है। मानवाधिकार और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता इसी तर्क के साथ अपना विरोध जताते रहे हैं और आलोचनाएं करते रहे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी इसे ‘बेहद आपत्तिजनक और अप्रिय’ कानून बताया था।