शायद सबको ये लगता है की टीबी उन्हें नहीं हो सकती।
मेरे पिता की मृत्यु टीबी से हुई थी। उनकी प्राथमिक जांच और इलाज एक जाने-माने निजी अस्पताल में हो रही थी। यह सब वहां पर एक बहुत ही अस्प्ष्ट जांच के आधार पर हुआ था। उनकी टीबी का पता हमें एक सरकारी अस्पताल के माध्यम से चला मगर तब तक काफी देर हो गयी थी।
वक़्त गुज़रता गया और में टीबी के बारे में भूल गया। सालों बाद, अचानक जब मैंने लगातार खाँसना शुरू किया तब इस घटना की याद दोबारा ताज़ा हो गयी। पहली बार डॉक्टर को दिखाने पर उसने मुझे कुछ दवाइयाँ दी मगर मेरी हालत बिगड़ती चली गयी. बाद में जब X-RAY की रिपोर्ट आयी तब पता चला की मेरे बाएं फेफड़े का नीचे का हिस्सा बर्बाद हो चुका है। टीबी मेरे जीवन में फिर से आ गयी।
मैं खुद बहुत समय से चिकित्सा के क्षेत्र में काम कर रहा था। इस वजह से मैं घबराया नहीं और इस स्थिति के लिए तैयार था। सही इलाज और मेरे परिवार की सहायता से मैं बहुत जल्द बिलकुल ठीक हो गया। मुझे ये भी पता था कि सबके पास मेरी तरह आर्थिक साधन नहीं होते की वो समय पर टीबी की जांच और इलाज करवा पाए। इस वजह से हर साल हज़ारों लोगों को गलत जांच और इलाज की वजह से मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसी तरह, सब के पास ऐसे साधन नहीं हैं की वह कोविड 19 की जांच, या फिर उसका इलाज एक निजी अस्पताल में करवा पाएं। तो सरकार को किन मुद्दों पर ध्यान देना ज़रूरी है?
भारत मे सबसे बड़ी चुनौती टीबी, और कोरोनावायरस की जांच है। अब एक ही मशीन पर दोनों बीमारियों का टेस्ट होगा – लेकिन बहुत सी जगहों में या तो मशीनें कम हैं, या फिर उपलब्ध ही नहीं हैं। यहाँ टीबी की जांच के लिए ज़्यादातर स्प्यूटम स्मीयर माइक्रोस्कोपी का इस्तेमाल होता है, और कोरोनावायरस के लिए एंटी बॉडी टेस्टिंग का। इन दोनों ही जांच प्रक्रियाओं में सिर्फ 30 से 50 प्रतिशत मामलों में ही कोरोनावायरस या टीबी का पता सही से लग पाता है। ज़्यादातर भारतीय इलाज के लिए निजी अस्पतालों पर निर्भर रहते हैं। टीबी में गलत इलाज, साइड इफेक्ट्स, मानसिक तनाव से लड़ पाना, और कोरोनावायरस में सही चिकित्सा समझ पाना या निजी क्षेत्र में किफायती इलाज मिल पाना बहुत मुश्किल है।
दूसरी चुनौती है भेदभाव। दोनों ही बीमारियों से जुड़ी शर्मिंदगी और भेदभाव लोगों को इन्हे छुपाने पर मजबूर करते हैं। इसका कारण? जागरूकता की कमी, इन्फेक्शन का डर। यह दोनों ही इतनी बड़ी चुनौतियाँ हैं। इस वजह से कईं बार टीबी और अब, कोरोनावायरस के मरीज़ अपनी बिमारी को ना सिर्फ छुपाते हैं बल्कि वो इसका इलाज भी नहीं करवाते।
जब में टीबी से लड़ रहा था, तो मेरी मंगेतर मेरी बीमारी के बारे में सुनने के बाद भी मेरा साथ देना चाहती थी। उन्हें टीबी को लेकर कोई डर, राय, शंका नहीं थी। आम तौर पर टीबी के मरीज़ों के विरुद्ध कार्य स्थल और अन्य सार्वजनिक जगहों पर बड़े पैमाने पर होने वाले भेदभाव की वजह से कई मरीज़ खुद ही समाज से कटने लगते हैं| आज कोरोनावायरस के बहुत से मरीज़ों को भी ये डर होगा।
तीसरी और अहम चुनौती है इलाज का खर्च। निजी अस्पतालों में टीबी और कोरोनावायरस की जांच, दवाइयां, और इलाज काफी महंगे होते हैं। सरकारी अस्पताल जहां ये सारी चीज़ें निशुल्क है वहाँ भी अप्रत्यक्ष खर्च, जैसे की X-RAY, आना-जाना, और अस्पताल में रुकने का शुल्क, बहुत ज़्यादा होता हैं। इनका समाधान क्या है? हमें मरीज़ों की ज़रूरतों को समझना होगा।
जागरुकता बढ़ाना और लोगों के दिमाग से टीबी को लेकर गलत पूर्वाग्रह हटाना बहुत ज़रूरी है। जल्द, सही व मुफ्त जांच एक प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके अलावा, टीबी के लिए ड्रग सेंसिटिविटी टेस्ट (DST) और कोरोनावायरस के लिए RT-PCR के नतीजों पर आधारित चिकित्सा महत्वपूर्ण है।
समुदायों और परिवारों को जागरूक करना और उनके मन में टीबी या कोरोनावायरस के बारे में बैठी गलतफहमियों को हटाना भी ज़रूरी है ताकि बिना किसी चुनौती के इलाज संभव हो पाए।
तत्काल यह ज़रूरी है की सरकारी और निजी अस्पताल सहित चिकित्सा क्षेत्र के विभिन्न भागीदार साझेदारी करें ताकि हर मरीज़ तक उसकी आर्थिक स्थिति के बावजूद मुफ्त जांच व इलाज पहुँचाना मुमकिन हो पाए। समय है कि हम कोरोनावायरस और टीबी, दोनों को बराबर प्राथमिकता दें और अपनी तकनीकी उन्नति का इस्तेमाल करते हुए ताकि हम मरीज़ों को बेहतर जांच, सहायता और शिक्षा दे सके। ऐसा ना करने पर कई लोगों की ज़िंदगी प्रभावित होगी जिससे कि भारत की प्रगति में रुकावट आ सकती है। भारत को टीबी-कोरोनावायरस मुक्त करना भारत को गरीबी और पीड़ा से मुक्त करना है।
(विशेष सूचनाः यह सामग्री गैर सरकारी संगठन Survivors against TB ने उपलब्ध करवाई है)