खर्च होता नहीं, सीमा बढ़ाने की तैयारी
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव को देखें, तो 6753 उम्मीदवारों में से 6719 ने बताया था कि उन्होंने चुनाव ..
Updated: January 16, 2015 12:12:12 pm
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव को देखें, तो 6753 उम्मीदवारों में से 6719 ने बताया था कि उन्होंने चुनाव में तय खर्च सीमा से आधा खर्चा किया है। हाल ही में पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों में भी कई उम्मीदवारों ने ऎसा ही बताया। ऎसे में सवाल है कि जब ज्यादातर उम्मीदवार कहते हैं कि वे आधा खर्च करते हैं, तो सीमा बढ़ाने का मतलब क्या है?
एस. एन. शुक्ला, सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट और चुनाव सुधार के लिए कार्यरत
मौ जूदा चुनावी खर्च सीमा बढ़ाने में कोई हर्ज नहीं है। इसके पीछे दो कारण हैं। पहला, महंगाई को ध्यान में रखते हुए, जिस तरह खाद्य पदार्थ और ईंधन के दाम बढ़े हैं, उस हिसाब से खर्च सीमा का बढ़नी चाहिए। दूसरा कारण यह है कि लोकसभा सीटों में पांच से आठ विधानसभा सीटें आती हैं, अब अगर विधानसभा के लिए चुनावी खर्च सीमा 16 लाख है, तो ऎसी स्थिति में सीधे-सीधे यह राशि 80 लाख से 1.28 करोड़ हो जाती है। ऎसे में लोकसभा उम्मीदवार के लिए 40 लाख रूपए चुनावी खर्च काफी कम है।
विधानसभा सीटों को देखकर एक अनुपात में लोकसभा सीट का चुनावी खर्च सीमा निर्धारित करना जरूरी है। लेकिन साथ ही एक पहलू यह भी है कि जो नई चुनावी खर्च सीमा हो, वह समावेशी हो। यानी उस सीमा में बाकी सारे खर्चे भी शामिल होने चाहिए। मसलन, अभी काफी उम्मीदवार सोशल मीडिया के जरिए प्रचार पर खर्चा करते हैं, वह चुनावी खर्च में शामिल नहीं होता है। इसलिए जो खर्चा हो, वह पूरा परिलक्षित होना चाहिए।
कुछ विशेषज्ञों का यह कहना कि चुनावी खर्च सीमा बढ़ाने की जरूरत नहीं है, तो उन्हें व्यावहारिकता पर सोचना चाहिए। मौजूदा दौर में महंगाई को लेकर खर्च सीमा को लिंक किया जा सकता है। 2009 और 2014 की मुद्रास्फीति में काफी फर्क आया है। राजनीतिक प्रतिनिधि इसे बढ़ाने की मांग करते रहे हैं। एक दूसरा पहलू भी है कि ज्यादातर उम्मीदवार चुनावी खर्च के हलफनामे में मौजूदा खर्च सीमा का आधा खर्च ही दिखाते हैं। इसकी वजह यह है कि इनमें से कई उम्मीदवार अपने नाते-रिश्तेदार के जरिए खर्च करते हैं।
साथ ही यह भी वजह हो सकती है कि उनके आय के स्रोत कम हों और उनमें से कोई कालाधन का इस्तेमाल कर रहा हो। इसे जांचने के लिए पुख्ता मॉनिटरिंग व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि कालाधन खर्च कर रहा उम्मीदवार कैसे दिखाएगा कि वह कितना खर्च कर रहा है। इसलिए चुनाव आयोग विशेषज्ञों के साथ मिलकर मॉनिटरिंग कराए। मौजूदा प्रक्रिया पर्याप्त नहीं है। दूसरा तरीका यह भी हो सकता है कि उम्मीदवारों के खर्चे की जांच कराने के लिए किसी एजेंसी की मदद से ऑडिटिंग कराई जाए।
हालांकि, सभी उम्मीदवारों की ऑडिटिंग करना सम्भव नहीं है, पर जिन निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी खर्च सीमा के उल्लंघन या अवैध खर्च की शिकायत मिले, तो उसकी जांच की व्यवस्था होनी चाहिए। चुनाव खर्च सीमा बढ़ाने के खिलाफ तर्क देना सैद्धांतिक तौर पर तो ठीक है, लेकिन व्यावहारिकता के धरातल पर भी इस पहलू को देखना होगा। साथ ही उम्मीदवारों द्वारा बताए गए खर्च के अलावा बाकी खर्च का पता लगाने की भी जरूरत है।
बढ़ोतरी की कोई जरूरत नहीं
प्रो. जगदीप छोकर, एडीआर के सह-संस्थापक और आईआईएम-अहमदाबाद के पूर्व निदेशक
चुनावी खर्च की सीमा क्या होनी चाहिए, यह तो तभी पता लगेगा, जब असली खर्च के आंकड़े हमारे सामने हों। जब तक उम्मीदवारों द्वारा सही चुनावी खर्च की जानकारी नहीं दी जाएगी, तब तक कितनी भी चुनावी खर्च सीमा बढ़ा दीजिए, वो कम ही पड़ेगी। सीमा बढ़ाने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चुनावी खर्च सीमा का पैमाना पूरी तरह अप्रासंगिक है। ज्यादातर उम्मीदवार जब चुनावी खर्च का हलफनामे में ब्योरा देते हैं, तो यह बताते हैं कि उन्होंने तय सीमा से करीब आधा ही खर्च किया है। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव का उदाहरण हमारे सामने है, जहां ज्यादातर उम्मीदवारों ने तय सीमा से आधा खर्च करना ही दर्शाया था। हाल ही में हुए विधानसभा चुनावों में भी कई उम्मीदवारों ने ऎसा ही बताया। इसलिए जब 99 फीसद उम्मीदवार कहते हैं कि वे आधा खर्चा करते हैं, तो सीमा बढ़ाने की कोई जरूरत नहीं रह जाती।
दूसरी बात, जब गोपीनाथ मुंडे कहते हैं कि वे आठ करोड़ खर्च कर सांसद बने हैं और ऎसे ही हरियाणा में कांग्रेस के एक सांसद ने कहा था कि राज्यसभा सीट के लिए किसी ने 80 करोड़ रूपए खर्च किए, तो इतनी बड़ी राशि का महंगाई से क्या रिश्ता रह जाता है। असल में खर्च सीमा बढ़ाने की दिशा में महंगाई को तो तब देखा जाए, जब पता हो कि कितना चुनावी खर्च हुआ है। एक और बात ध्यान में रखने लायक यह है कि चुनाव आयोग कभी भी चुनावी खर्च की सीमा नहीं बढ़ाता है। यह खर्च सीमा कानून मंत्रालय के आदेश पर बढ़ती है। लोगों को इस मसले पर भ्रम रहता है कि खर्च सीमा आयोग बढ़ाता है। आयोग तो सिर्फ अपनी अनुशंसाएं भेजता है।
एक बड़ी दिलचस्प बात यह भी है कि कोई राजनीतिक दल चुनाव खर्च सीमा बढ़ाने की मांग ही नहीं कर रहा है। कुछ उम्मीदवार ऎसा जरूर कहते हैं कि उनका चुनाव में ज्यादा खर्चा हो रहा है। आम आदमी इसकी चर्चा करता है, लेकिन खर्चा करने वाली बिरादरी कह नहीं रही कि खर्चा ज्यादा हो रहा है। इसलिए चाहे कोई भी फॉर्मूला बना लीजिए, चाहे आरबीआई से कोई पैमाना बनवा लें, लेकिन जब तक खर्च और आमदनी में पारदर्शिता नहीं होगी। सूचना के अधिकार के तहत राजनीतिक दल नहीं आएंगे, तब तक इसका कोई फायदा नहीं है।
आरटीआई में आएं दल
भले ही 30 फीसद खर्च की जगह 300 फीसद खर्च सीमा बढ़ा दीजिए, तब भी उम्मीदवार हलफनामे में दर्शाएंगे कि वे आधा ही खर्च कर रहे हैं। इसलिए चुनावों में खर्चे का ब्योरा पूछकर बेवजह की कागजी कार्रवाई की जाती है, इसका कोई मतलब नहीं निकलता। केवल "शैडो प्ले" हो रहा है। सभी को पता है कि खर्च करोड़ों में होता है, लेकिन अभी कुछ नहीं किया जा सकता है। चुनाव आयोग खर्च की देखरेख करता है, लेकिन जब तक उम्मीदवार और पार्टियां खुद बताने की चाह नहीं रखेगीं, तब तक कुछ नहीं होने वाला।
मुख्य सूचना आयुक्त ने पिछले साल फैसला दिया था कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत रहना चाहिए। उस फैसले को अभी तक किसी ने बदला भी नहीं है, लेकिन फिर भी राजनीतिक दल इसके दायरे में नहीं आए हैं। सरकार ने तो कानून में ही संशोधन करने का विधेयक पेश कर दिया। लोकसभा से यह विधेयक स्टैंडिंग कमेटी को भेजा गया, कमेटी की रिपोर्ट में लिखा गया है कि बीजेडी के एक सदस्य और राज्यसभा सांसद अनु आगा ही आरटीआई में संशोधन के खिलाफ हैं। गौर करने लायक बात यह है कि 17 दिसम्बर 2013 को स्टैंडिंग कमेटी की रिपोर्ट आई और 18 दिसम्बर को संसद में लोकपाल पेश हुआ, इसके समर्थन में राहुल गांधी ने भाषण दिया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ पहला कदम आरटीआई के रूप में उठाया और अब लोकपाल ला रहे हैं।
अब राहुल गांधी से पूछा जाना चाहिए कि जिस तरह उन्होंने अपराधी प्रतिनिधियों को बचाने के लिए सरकार के अध्यादेश को फाड़ने की बात कही थी, क्या वे इस रिपोर्ट को भी फाड़ने का मन रखते हैं। क्या उन्हें इस रिपोर्ट को भी रिजेक्ट नहीं करना चाहिए? यानी राहुल गांधी की पार्टी की सरकार एक कदम आगे तो बढ़ रही है, लेकिन पहले वाले कानून को खत्म भी करती जा रही है।
दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में राहुल गांधी ने एक टेलीविजन को दिए साक्षात्कार में 33 दफा आरटीआई का जिक्र किया। जब उन्हें इस पर इतना गर्व है, तो क्यों नहीं उन्हें राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाने के लिए जोर लगाना चाहिए? सवाल है कि जब सीआईसी जैसी कानून लागू कराने वाली संस्थाएं भय के मारे राजनीतिक दलों पर आदेश लागू नहीं करा सकती हैं, तो फिर कैसे मालूम होगा कि उम्मीदवार चुनावों में कितना धन खर्च कर रहे हैं।

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