चिरंजीवी हो पुत्र!Ó कुंती ने कृष्ण के सिर पर हाथ रखा, 'महाराज से मिल कर आ रहे हो?Ó 'हां बुआ!Ó 'संधि कर आए अथवा युद्ध होगा?Ó 'संभावना तो युद्ध की ही है किंतु अभी संधि का प्रयत्न होगा।
उसके विषय में निश्चित रूप से तो कल ही बता पाऊंगा।Ó कृष्ण बोले, 'आप कैसी हैं?Ó 'जैसी हो सकती हूं, वैसी ही हूं पुत्र!Ó कुंती ने कहा, 'जानती हूं कि अपने भाइयों की तुम पूरी देख-भाल कर रहे हो।
जानती हूं कि एक सीमा के पश्चात् कोई माता-पिता अपनी संतान के लिए कुछ नहीं कर सकते फिर भी अपने पुत्रों की चिंता करती हूं।Ó 'क्यों चिंता करती हैं बुआ? आपके पुत्र महावीर हैं। वे सब प्रकार से समर्थ हैं। वे धर्म की छत्रछाया में हैं।Ó कृष्ण मुस्कराए, 'फिर भी उनकी चिंता करती हैं?Ó
'चिंता तो मैं इसलिए करती हूं, क्योंकि मैं उनकी मां हूं।Ó कुंती ने कहा, 'न मैं उनकी असहायता और निर्धनता भूल पाती हूं और न अपनी पुत्रवधू का अपमान। मुझे चिंता है कि अपनी उदारता और क्षमाप्राण बुद्धि के कारण युधिष्ठिर कहीं महाराज धृतराष्ट्र का संधि प्रस्ताव मान ही न ले।Ó
'संधि प्रस्ताव मानने में आपको क्या आपत्ति है बुआ? उससे अ_ारह अक्षौहिणी सेना नष्ट होने से बच जाएगी।Ó कृष्ण बोले, 'उनके परिवारों का शोक टल जाएगा। क्या आपको यह अच्छा नहीं लगेगा?Ó 'पाप, अधर्म और अन्याय की रक्षा के लिए शांति का प्रस्ताव एक सुंदर तर्क है।Ó
कुंती ने एक कटु मुस्कान के साथ कहा, 'जिन्हें संधि इतनी ही प्रिय है, उनसे कहो कि वे मानवता के इस विनाश को बचाने के लिए थोड़ा त्याग करें।
अपने पुत्र दु:शासन को उसके अपराध का दंड भोगने के लिए भीम को सौंप दें। यह भी न कर सकें तो दुर्योधन को कोई पांच ग्राम देकर, सत्ता, पूर्व-युवराज युधिष्ठिर को सौंप दें। शांति की रक्षा के लिए सारा मूल्य सदा पांडव ही क्यों चुकाएं?
इस संसार में शांति बनाए रखने के लिए धृतराष्ट्र का सिंहासन पर बैठे रहना और मेरे पुत्रों का वनों में भटकते रहना क्यों आवश्यक है? शांति के लिए द्रौपदी ही क्यों अपमानित होती है, दुर्योधन क्यों थोड़ा-सा कष्ट नहीं सहता? नहीं केशव!
यह धर्म नहीं है। जिस संधि से अधर्म सत्तासीन होता है, मैं उसकी समर्थक नहीं हूं। धर्म क्षेत्र को पापियों के रक्त से धुलना ही होगा तभी वह धर्म क्षेत्र हो पाएगा।
शांति के उपासकों से कहो कि यदि सैनिकों को मृत्यु से बचाना है तो वे दुर्योधन को कहें कि वह भी जरासंध के समान भीम से अकेले लड़कर इस युद्ध का निर्णय कर ले। जो विजय हो, वह राजा हो और अपराधियों को दंडित करने का उसे अधिकार हो।Ó
कृष्ण हंसे, 'ठीक कहती हैं बुआ! पापी को दंडित होना ही चाहिए किंतु दंडित केवल पापी ही नहीं होगा, पाप में उसका सहायक, उसका रक्षक और उस पाप के फल का भोक्ता भी होगा।Ó 'उनकी सूची तो बहुत लंबी है पुत्र!Ó 'न्याय सूची देखकर तो नहीं होता बुआ!Ó कृष्ण उठ खड़े हुए, 'तो चलूं, हस्तिनापुर के युवराज से भी भेंट कर आऊं।
राजा दुर्योधन मुझे न हस्तिनापुर के नगर द्वार पर मिले, न महाराज के मंडप में।Ó 'तुम तो निर्बंध स्वच्छंद पवन के समान हो कृष्ण! कोई तुम्हें कहीं जाने से कैसे रोक सकता है।Ó
कुंती ने मुस्कराकर जैसे उन्हें अनुमति दे दी। दुर्योधन का प्रासाद पर्वत के समान ऊंचा और विराट था। उसको सुंदर और असाधारण बनाने के लिए बहुत सारा धन और स्वर्ण व्यय किया गया था किंतु उसमें कहीं भी भव्यता और पवित्रता का आभास नहीं होता था। धन का अहंकार और प्रदर्शन अवश्य झलकता था।
कृष्ण मन ही मन मुस्कराए, 'वैभव का आतंक इसे ही कहते हैं।Ó परिचारिकाएं कृष्ण को सीधे दुर्योधन के कक्ष में ले गईं। प्रासाद में अनेक लोग दिखाई पड़ रहे थे जैसे सारा कुरुकुल वहां एकत्रित हो किंतु दुर्योधन के कक्ष में केवल दु:शासन, कर्ण और शकुनि ही थे।
उन्होंने कृष्ण का समारोहपूर्वक स्वागत किया। जल, मधुपर्क और अघ्र्य निवेदित किया। कृष्ण बैठ गए तो अन्य कक्षों से कुछ और लोग भी उनसे मिलने आए। दुर्योधन ने उन सबसे उनका परिचय कराया।