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वाराणसी

हिंदी दिवस- नौवीं कक्षा के छात्र जिन्होंने रच दिया इतिहास

दुनिया को दी हिंदी की बड़ी सौगात, छात्रावास के बरामदे में  कर दिया नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना. जानिए ये कौन थे, क्या था उद्देश्य…

वाराणसीSep 14, 2016 / 08:02 pm

Ajay Chaturvedi

Nagri Pracharini Sabha

Nagri Pracharini Sabha

डॉ. अजय कृष्ण चतुर्वेदी

वाराणसी.
बात उन दिनों की है जब भारत गुलाम था। ब्रिटिश हुकूमत की जंजीरों में जकड़ा था। साथ ही आजादी के लिए कसमसा रहा था। अपनी कोई राष्ट्रभाषा नहीं थी। स्कूली शिक्षा भी ब्रितानी भाषा में ही हासिल करने की मजबूरी थी। तभी क्वींस कॉलेज में नौवीं कक्षा में पड़ने वाले तीन छात्रों के मन में विचार आया कुछ ऐसा किया जाए कि अपनी बोली, अपनी भाषा समृद्ध हो। एक ऐसी भाषा जिसे हर कोई आसानी से समझ सके। अपने विचारों को रख सके। देश में एका कायम कर सके। आजादी के लिए लोगों को एकजुट कर सके। चिंतन शुरू हुआ और एक दिन अचानक क्वींस कालेज के छात्रावास के बरामदे में ही बैठे-बैठे बाबू श्याम सुंदर दास, पंडित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमार सिंह ने नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना कर दी। लेकिन इसका स्वरूप सामने आया 16 जुलाई 1893 को। इसकी औपचारिक घोषणा हुई और आधुनिक हिंदी के पुरोधा भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास को इसका पहला अध्यक्ष चुन लिया गया। काशी के सप्तसागर मोहल्ले के घुड़साल में इसकी बैठकें शुरू हो गईं। पहले ही साल इस संस्था के जो सदस्य बने वो थे महामहोपाध्याय पंडित सुधाकर द्विवेदी, इब्राहिम जार्ज ग्रियर्सन, अंबिका दास व्यास, चौधरी प्रेमधन जैसे भारत के ख्याति प्राप्त विद्वान। बाद में नागरी प्रचारिणी सभा का अपना भवन मैदागिन इलाके में बना।

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नागरी प्रचारिणी सभा का उद्देश्य
नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना के पीछे उद्देश्य था हिंदी और देव नागरी लिपि का राष्ट्रव्यापी प्रचार व प्रसार। उस समय न्यायालयों या अन्य सरकारी कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग नहीं होता था। हिंदी शिक्षा की व्यवस्था वैकल्पिक रूप में मिडिल पाठशालाओं तक ही सीमित थी। हिंदी में आकर ग्रंथों का पूर्ण रूप से अभाव था। प्रेमसागर, बिहारी सतसई, तुलसीकृत रामायण और मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत जैसे ग्रंथ ही आकर ग्रंथ माने जाते थे। जहां-तहां मिडिल क्लास में वैकल्पिक रूप से पढ़ाए जाते थे। भारतेंदुर और उनकी मित्र मंडली का साहित्य केवल साहित्यकारों के अध्ययन व चिंतन तक सीमित था।

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स्थापना के सात साल में ही सभा ने हासिल कर ली बड़ी उपलब्धि
लेकिन स्थापना के सात साल में ही नागरी प्रचारिणी सभा ने बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली। सरकार से हिंदी प्रदेशों के 60 हजार विशिष्ट नागरिकों ने देवनागरी लिपि में हिंदी के प्रयोग की अनुमति सरकार तथा न्यायालयों में पंडित मदन मोहन मालवीय और बाबू श्याम सुंदर दास के नेतृत्व में मांगी जिसमें हिंदी प्रदेश के राजाओं-महाराजाओं और विद्वानों का सहयोग था। यह आंदोलन खूब चला। सरकार को नागरी लिपि को वैज्ञानिकता के संबंध में ज्ञापन प्रस्तुत किया गया जो देवनागरी लिपि को संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि साबित करने वाला पहला विस्तृत, प्रामाणिक और सर्वमान्य दस्तावेज है। इस आंदोलन में सभा के कई कार्यकर्ता गिरफ्तार किए गए और यह माना जाता है कि हिंदी के लिए यह पहला सत्याग्रह था जिसमें सभा सफल रही। इतना ही नहीं बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी को अंग्रेज सरकार ने यह अधिकार दिया था कि वह संस्कृत के हस्तलिखित ग्रंथों की देश भर में खोज करे और उसकी विवरणात्मक सूची बनाए। सभा ने सरकार से यह अनुरोध किया कि इस खोज में जो हिंदी की पुस्तकें मिलें उनकी सूची एशियाटिक सोसाइटी प्रकाशित करे। यह कार्य सोसाइटी ने बड़े बेमन से दो साल तक किया। इसके बाद यह कार्य सभा को इस शर्त के साथ सौंपा गया कि सभा इसका विवरण प्रकाशित कर सकती है लेकिन वह अंग्रेजी में होगा और सरकार की ओर से छपेगा। सभा ने इसे स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही हिंदी हस्तलेखों की खोज का काम शुरू हो गया। इसके तहत बिहार,उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश में लाखों हस्तलेखों का विवरण प्रकाशित किया गया। इस दौर में सभा ने हिंदी के हस्तलेखों का इतना विशाल संग्रह पुस्तकालय में संग्रह कर लिया जितना एक स्थान पर संसार में कईं अन्यत्र नहीं है। इसमें 25 हजार हस्त लेख संस्कृत के भी हैं जिसके अध्ययन अध्यापन के लिए विश्व भर से शोध छात्र व विद्वान सभा में आते हैं।

पृथ्वीराज रासो का प्रकाशन
एशियाटिक सोसाइटी ने भारतीय भाषाओं में सबसे विशाल काव्य चंद्रवरदाई की कृति पृथ्वीराज रासो का प्रकाशन आरंभ किया जो किसी पुराण से भी बड़ा काव्य ग्रंथ है। पर विवाद के कारण इसके कुछ खंडों का प्रकाशन कर सोसाइटी शांत हो गई। इस काम को भी सभा ने अपने हाथ में लिया और 1904 से 1913 के बीच 3000 पृष्ठों के ग्रंथ को प्रकाशित किया। इसके बाद 20वीं सदी के आरंभ के बाद सभा की मान्यता और उसके कृतित्व को सारे राष्ट्र में सम्मानित किया जाने लगा।

तिलक ने कहा था, हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है
1905 में काशी में कांग्रेस अधिवेशन के वक्त एक भाषा सम्मेलन हुआ जिसकी अध्यक्षता सर रमेश चंद्र दत्त ने की। उसमें नागरी प्रचारिणी सभा के प्रांगण में लोक मान्य गंगा धर तिलक ने यह घोषणा की कि हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है और देवनागरी लिपि वैकल्पिक रूप से भारत की सभी भाषाओं के लिए प्रयुक्त की जानी चाहिए। यह कार्य भी सभा को ही सौंपा गया। तभी से यह कार्य निरंतर जारी है।

और लोग जुड़ते गए नागरी प्रचारिणी से
सर आशुतोष मुखर्जी सभा के न्यासी मंडल के अध्यक्ष बने और बाद में लाला लाजपत राय इस पद पर आए। सर तेज बहादुर सप्रू ने उस युग में सभा की आर्थिक एवं नैतिक सहायता की जो उस युग में कई सहस्त्र रुपयों की थी। 1908 से पंडित गोविंद बल्लभ पंत प्रतिमाह 1.50 रुपये से सभा की सहायता करने लगे। साथ ही उन्होंने अपने सामाजिक और राजनीतिक जीवन की शुरूआत अपनी संस्था प्रेम सभा को नागरी प्रचारिणी सभा से संबद्ध करके की। उस वक्त के राजा-महाजाराओं यथा काशी नरेश, उदयपुर, ग्वालियर, खेतड़ी, जोधपुरी, बीकानेर,कोटा, बूंदी, रीवां आदि ने इसे सहायता पहुंचाई और मोहन दास करमचंद गांधी ने इसकी कार्यकारिणी के सदस्य के रूप में सहायता की। 1934 में उन्होंने यंग इंडिया में सभा की सहायता के लिए अपने हस्ताक्षर से अपील की। पंडित मोतीलाल नेहरू ने भी सहायता की। सीवाई चिंतामणि ने विधान परिषद में सभा के भाषा के संबंध में विचारों का बराबर समर्थन शुरू किया।

हिंदी की प्राचीनतम शोध पत्रिका है नागरी प्रचारिणी पत्रिका

हिंदी की सबसे प्राचीन शोध पत्रिका नागरी प्रचारिणी पत्रिका है जिसका सारे संसार के खोज जगत में मान है। यह सन् 1897 से निकल रही है। इस पत्रिका के संपादक मंडल में बाबू श्याम सुंदर दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जयचंद विद्यालंकार, डॉ. संपूर्णानंद, आचार्य नरेंद्र देव, हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान रहे। इसके अलावा सरस्वती हिंदी की आदि नियामक पत्रिका है जिसका शुभारंभ नागरी प्रचारिणी सभा ने किया और तीन साल तक उसका संपादन करती रही। बाद में आचार्य पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को इसका संपादन सौंपा।

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आर्य भाषा पुस्तकालय भी है यहां

हिंदी में आर्यभाषा पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें हजारों पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें, लगभग 50 हजार हस्तलेख और हिंदी के अनुपलब्ध ग्रंथों का संग्रह है। डॉ. श्याम सुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र अज्ञेय जी के पिता हीरानंद शास्त्री, मायाशंकर याज्ञिक, डॉ संपूर्णानंद, नंद दुलारे वाजपेयी, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब बनारसी’, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसमें प्रमुख रूप से अवदान किया। उन्होंने अपना पुस्तकालय इसे समर्पित कर दिया।

हिंदी का शब्दकोष दिया
बीसवीं सदी के प्रारंभ में सभा ने हिंदी के शब्दकोष को तैयार करने का बीड़ा उठाया। 1904 में यह कार्य शुरू हुआ और 25 सालों के अथक प्रयास से इसे पूर्ण किया गया। इसके संपादक थे बाबू श्याम सुंदर दास ‘बीए’ और सहायक संपादक मंडल में थे बाल कृष्ण भट्ट, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, अमीर सिंह, जगमोहन वर्मा, लाला भगवानदीन और रामचंद्र वर्मा।

साहित्य सम्मेलन की स्थापना हुई

1910 में सभा के प्रांगण में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की गई। इसी के माध्यम से दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा और राष्ट्र भाषा समिति, वर्धा की शुरूआत हुई। हिंदी साहित्य और भाषा की लगभग 60 संस्थाएं इससे संबद्ध हैं। बतादें कि सभा की सदस्यता प्रारंभ से ही विश्वव्यापी है। इसकी कार्यकारिणी में तीन विदेशी हमेश रहते हैं।

हिंदी का व्याकरण व इतिहास भी तैयार किया
सभा की स्थापना के समय न हिंदी का कोई प्रामाणिक व्याकरण था न इतिहास। सभा ने बाबू श्याम सुंदर दास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, लज्जाशंकर झा आदि के सहयोग से कामता प्रसाद गुरु से व्याकरण रचाया। इसी प्रकार शब्द सागर की भूमिका के रूप में आचार्य रामचंद्र शुक्ल से हिंदी साहित्य का इतिहास प्रस्तुत कराया।

निष्काम संकेत लिपि प्रणाली का आविष्कार
गांधी जी के अनुरोध पर हिंदी में निष्काम संकेत लिपि प्रणाली का सभा ने आविष्कार कराया। जिसके विद्यार्थी लाल बहादुर शास्त्री, टीएन सिंह तथा अलगू राम शास्त्री थे जिन्होंने इसेक माध्यम से कटक कांग्रेस की रिपोर्टिंग की।

नागरी प्रचारिणी का ही है भारत कला भवन
भारत कला भवन जो उत्तर भारत का अत्यंत महत्वपूर्ण कला संग्रहालय है यह भी नागरी प्रचारिणी सभा का है जिसे काशी हिंदू विश्वविद्यालय को संरक्षण, संवर्धन व विकास के लिए स्थानांतरित किया है। सभा ने 12 खंडों में हिंदी विश्वकोष की रचना कराई। शब्द सागर के नवीन संस्करण का प्रकाश कराया है जिसमें 1965 तक के व्यवहृत शब्दों को सम्मिलित कर लिया गया है। यह भी 12 भागों में प्रकाशित हुआ है। हिंदी साहित्य का इतिहास 16 भागों में प्रकाशित किया जा चुका है। इसके अलावा लगभग 500 आकर ग्रंथों का प्रकाशन जिसमें हुमायूंनामा, अकबरनामा, जहांगीरनामा, मुगल दरबार, जंगनामा, ह्वेनसांग, सुलेमान सौदागर, फाह्यान का यात्रा विवरण, प्राचीन मुद्रा राक्षस जैसे ग्रंथों का अनुवाद प्रस्तुत किया गया है।

दिल्ली में है हिंदी भवन
सभा के अर्द्ध शताब्दी के मौके पर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने हरिद्वार में अपनी सारी संपत्ति दान दी। इधर सभा ने भूमि भवन का विस्तार इतने व्यापक पैमाने पर किया कि लगभग 60 हजार वर्ग फीट आच्छादित क्षेत्र में नए भवन आदि बने। हिंदी की यह प्रथम संस्था है जिसने दिल्ली में हिंदी भवन का सर्वप्रथम निर्माण कराया। पांच मंजिला भवन तैयार हो चुका है।
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