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नोटबंदी: नवंबर तो बीत गया, दिसंबर कैसे बीतेगा

locationनोएडाPublished: Dec 09, 2016 05:14:00 pm

Submitted by:

sandeep tomar

नोटबंदी के दूसरे महीने में अब लोगों के सामने कैश की समस्या विकट हो गई है

15 accounts found to be fake in Axis Bank Rs. 70 c

15 accounts found to be fake in Axis Bank Rs. 70 cr deposited in accounts

बुलंदशहर। नोटबंदी को एक महीना पूरा हो गया है। नवंबर में नोटबंदी की घोषणा के बाद से जनता लाइनों में है। कभी पैसा बदलवाने के लिए, कभी जमा करने के लिए, कभी निकालने के लिए और कभी एटीएम की लाइन में। बुलंदशहर जैसे छोटे शहरों में हालात काफी खराब हैं। जिले में पेटीएम और स्वाइप मशीनों का इस्तेमाल बहुत ज्यादा नहीं है। दूध से लेकर सब्जी तक और रोजमर्रा के सामान से लेकर पेट्रोल पंप तक पर कैश को लेकर जूझना पड़ रहा है।

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चांदपुर रोड निवासी उमा गोयल बताती हैं कि बिना कैश के थोड़ी परेशानी तो हो ही रही है। पिछले महीने थोड़ा कैश हाथ में था तो जैसे तैसे काम चल गया लेकिन अब सोच समझ कर पैसा खर्च करना पड़ रहा है। जब तक बहुत जरूरत ना हो पैसा खर्च नहीं किया जा रहा है। हालांकि वे नोटबंदी का समर्थन करती हैं लेकिन साथ में हो रही परेशानी से परेशान भी हैं।

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आॅनलाइन शॉपिंग

अनामिका बताती हैं, हमने ऑनलाइन पेमेंट का ऑपशन चुना। ऐसी जगहों से खरीदारी की जहां कार्ड स्वाइप हो सके। लेकिन हाथ में कैश बहुत कम है और बेहद जरूरत की वस्तुएं ही खरीद पा रहे हैं। जितना कैश था, सब बैंक में जमा हो गया और अब इस महीने ग्रॉसरी का सामान उधार लेना पड़ा है। लाइनों में लग कर भी कैश नहीं निकाल पा रहे हैं। या तो एटीएम खराब पड़े हैं या फिर उनमें पैसा नहीं है।

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सब मांग रहे खुल्ले पैसे

डीएम कॉलोनी निवासी रचना गुप्ता का कहना है कि हालात बेहद खराब हैं। ना तो पैसा पास है और एटीएम कार्ड से दुकानदार सामान नहीं दे रहे। स्वाइप मशीन वाले भी कैश नहीं दे रहे हैं। नवंबर तो बीत गया लेकिन दिसंबर कैसे बीतेगा। परिवार के पुरुष रोजाना लाइनों में धक्के खा रहे हैं लेकिन फिर भी 2000 से अधिक कुछ नहीं मिल पा रहा है। मोबाइल रिचार्ज वाले, सब्जी वाले, किराने की दुकान वाले, कोई भी कार्ड से पेमेंट नहीं ले रहा है। सभी 100 के नोट मांग रहे हैं।

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तोड़ दी गुल्लक

जनपद की अन्य महिलाओं ने भी ऐसे विचार ही हमारे सामने रखे। घर में रखे 10, 20, 50 के नोट खत्म हो चुके हैं। महिलाओं का कहना है कि बच्चों की गुल्लकें तोड़नी पड़ी हैं लेकिन फिर भी काम चलाना मुश्किल हो रहा है।
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