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शांति के लिए कृष्ण के साथ प्रेमपूर्ण संबंध आवश्यक

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष
कृष्ण क्यों प्रकट होते हैं: ताकि हम आध्यात्मिक उन्नति से पूर्णता पा सकें

Aug 19, 2022 / 05:59 pm

Patrika Desk

श्रीकृष्ण की कालिया मर्दन लीला का चित्रांकन

तोषण निमाई दास
लेखक और आध्यात्मिक शिक्षक, इस्कॉन
कृष्ण का प्राकट्य एक चिरस्थायी उत्सव है। कृष्ण नियमित रूप से इस नश्वर जगत के एक या विभिन्न ब्रह्मांडों में अपनी लीलाओं की झलक दिखाने, हमारे हृदय को आकर्षित करने और हमें अपने शाश्वत आध्यात्मिक लोक में पुन: आमंत्रित करने के लिए प्रकट होते हैं। कृष्ण भगवद् गीता में सिखाते हैं कि कैसे हम उनके पास वापस जाने की पूर्णता प्राप्त करने के लिए अपने व्यवसायी और पारिवारिक कत्र्तव्यों में लगे रहते हुए आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं। इस आध्यात्मिक उन्नति के तीन चरण हैं, अर्थात् संबंध-ज्ञान, अभिधेय और प्रयोजन।
‘संबंध ज्ञान’ अर्थात कृष्ण के साथ हमारे संबंधों को समझना। बहुत से लोग कृष्ण को एक ऐतिहासिक/पौराणिक व्यक्ति, एक महान रणनीतिकार या सांस्कृतिक परिदृश्य में रंगीन चरित्र के रूप में देखते हैं, किन्तु शास्त्र कृष्ण को परम आध्यात्मिक सत्य के रूप में समझाते हैं। कृष्ण परम सत्य हैं, समस्त अस्तित्व का मूल कारण। उनके भीतर, सब कुछ, सृष्टि-स्थिति-प्रलय विद्यमान है। वह सम्पूर्ण सृष्टि के परम आश्रय हैं। हम उनके सूक्ष्म अंश हैं, हम अपने अस्तित्व और क्षमता में मात्रात्मक रूप से सूक्ष्म होते हुए भी गुणात्मक रूप से उनके बराबर हैं।
कृष्ण के साथ हमारा शाश्वत संबंध है। किन्तु स्वतंत्र भोक्ता होने की इच्छा के कारण, हम सभी इस जगत में आ गए हैं, जहां हर कोई व्यक्ति अपने सीमित संसार का केंद्रबिंदु बनना चाहता है। इस सत्ता के संघर्ष के कारण हम यहां पीडि़त हैं। कृष्ण गीता में कहते हैं कि जब हम उन्हें परम भोक्ता, नियंत्रक और सभी जीवों के परम हितैषी के रूप में स्वीकार करते हैं, तब हमें शांति प्राप्त होती है। हमें इस सत्ता के संघर्ष से बाहर आने और विनम्र होने के लिए कृष्ण के साथ एक प्रेमपूर्ण संबंध अर्थात भक्ति विकसित करने की आवश्यकता है, क्योंकि ‘केवल दीन और विनम्र ही भगवान की कृपा प्राप्त करते हैं।’
एक बार जब हम कृष्ण के साथ अपने संबंध को समझ लेते हैं तो उस संबंध के अनुसार कार्य करना आरंभ कर देते हैं जिसे ‘अभिधेय ज्ञान’ कहा जाता है। यह भक्ति के विभिन्न अंगों के अभ्यास के माध्यम से इस प्रेम को विकसित करने की एक प्रक्रिया है। इसके लिए प्रारंभिक प्रेरणा शास्त्रों के आदेश हैं जो हमें समझाते हैं कि यह संसार दु:ख से भरा है, और बताते हैं कि कैसे भक्ति आत्मा के लिए परम कल्याणकारी है। इस प्रक्रिया में कृष्ण के विषय में सुनना, उनके पवित्र नामों का जप करना, उनके विग्रह रूप की सेवा करना सम्मिलित है जो दयापूर्वक हमारी सेवाओं जैसे स्नान कराना, वस्त्र पहनाना, भोजन अर्पण करना आदि को स्वीकारते हैं। ऐसी सेवा करने से व्यक्ति धीरे-धीरे जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात भगवान के प्रेम को प्राप्त करता है, वह ‘प्रयोजन-सिद्धि’ को प्राप्त करता है जो मनुष्य जीवन के लक्ष्य की पूर्ति है। ऐसा स्वाभाविक प्रेम पूर्णत: नि:स्वार्थ होता है जो जीव के हृदय को असीमित आनंद से भर देता है। ऐसा आनंद किसी अन्य माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। यह प्रेम जीव को जन्म और मृत्यु की पुनरावृत्ति से मुक्त करता है और उसे दिव्य आध्यात्मिक लोक में स्थित करता है।
कृष्ण इस प्रेम से बंध जाते हैं, जैसा कि गोपियों और कृष्ण के बीच व्यवहार में देखा जाता है। कवि रसखान कहते हैं, ‘शेष महेश गणेश दिनेश, सुरेश जाहि निरंतर गावे। जाहि अनादि अनंत अखंड , अछेद अभेद सुवेद बतावे।। नारद से शुक व्यास रटे, पवि हारे तऊ पुनि पार ना पावे।। ताहि अहीर की छोहरिया, छछिया भर छाछ पे नाच नचावे।।’ शेष यानी शेषनाग, महेश यानी शिव, दिनेश यानी सूर्यदेव, सुरेश यानी इंद्रदेव, ये सब देवता जिसकी पूजा करते हैं जो अनादि है यानी जिसके न उद्भव, न अंत का पता है, जिसके खंड नहीं किए जा सकते, जिसे भेदना संभव नहीं है, ऐसा वेद बताते हैं। नारद, शुक, व्यास जैसे ऋषि-मुनि इनके विषय में जानने का प्रयत्न करते हैं पर हार जाते हैं। ऐसे श्रीकृष्ण को अहीरों की लड़कियां मक्खन दिखाकर नाचने को कहती हैं और वह नाचते भी हैं।
सर्वज्ञ और परम स्वामी कृष्ण मक्खन चुराते हुए माता यशोदा, गोपियों द्वारा रंगे हाथों पकड़े जाने से भयभीत होते हैं, पिता नंद महाराज की पादुका अपने शीश पर रख लेते है। ऐसी लीलाएं सभी को असीमित आनंद में डुबो देती हैं। कृष्ण के आध्यात्मिक लोक में नगण्य जीव प्रेमपूर्ण सेवा के माध्यम से असीम कृष्ण को नियंत्रित करते हैं। आइए हम जन्माष्टमी के दिन कृष्ण की कृपा के लिए प्रार्थना करें।

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