समाज एक लड़की को इस विशेष ढांचे में गढऩे की कवायद बचपन से ही शुरू कर देता है और यह प्रक्रिया ताउम्र चलती है। यह प्रक्रिया इतनी सूक्ष्म और सर्वमान्य है कि ज्यादातर लोगों को अहसास ही नहीं होता कि वे किस प्रकार एक लड़की से उसके व्यक्ति-अधिकार भी छीन रहे हैं। एक किशोरी को जिम्मेदारी या बोझ मानकर पहरे में रखा जाता है। यह सब स्नेह और सुरक्षा के नाम पर होता है। बेहतर तो यह है कि किशोरियों को इस लायक बनाया जाए कि वे अपनी देखभाल और सुरक्षा खुद कर सकें।
आप कहेंगे कि समाज अब काफी बदल गया है, स्त्रियों को भी समान अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त है। क्या वाकई ऐसा है? हमारे ही देश में अब भी कभी कोई नेता लड़कियों की फटी हुई जींस पर अपनी राय देता है, कभी महिला आयोग की सदस्य लड़कियों को मोबाइल फोन न देने की तालिबानी ताकीद करती है। हमारे ही देश में अब भी लड़कियों को पढ़ाने से ज्यादा उन्हें ब्याह योग्य बनाने की चिंता रहती है। हमारे ही देश में सबसे ज्यादा स्त्रियां कुपोषण, गर्भावस्था के दौरान मौत से लेकर बलात्कार, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा आदि की शिकार होती हैं। आज भी आधी आबादी अपने जीने के अधिकार से वंचित है। समाज के कारखाने में की जा रहा उनकी ‘मैन्युफैक्चरिंग’ सिर्फ समाज के अपने फायदे के लिए है, ताकि धर्म, पितृसत्ता, घर-परिवार की सारी स्वच्छन्दता बेरोकटोक चलती रहे। एक लड़की को जन्म से ही इतना भयभीत कर दिया जाता है कि वह खुद भी अपनी नागरिक आजादी के बारे में सोच नहीं पाती। उसके सपने घर की चौखट के बाहर आते ही दम तोड़ देते हैं। उसे बताया जाता है कि बेबाकी से हंसना, जोर से बोलना, अपने हक के लिए लडऩा-झगडऩा ये स्त्रियों के गुण नहीं हैं। स्त्रियां इस सांचे में बखूबी ढल भी जाती हैं और इस खांचे को तोडऩे वाली औरतों के खिलाफ पितृसत्ता के शोषण को मजबूत भी करती हैं।
अपने गढऩ को नकारने वाली, पितृसत्ता के कारखाने से विद्रोह करने वाली स्त्रियों का जीवन आसान नहीं होता। उन्हें हर कदम पर उनके चयनों की सजा दी जाती है, लेकिन वे फिर भी अपनी मर्जी का जीवन जीना नहीं छोड़तीं। वे आवाज उठा रही हैं, लड़ रही हैं, ताकि लाखों दमित स्त्रियों को उनकी आवाज मिल सके।