विधेयकों पर विचार-विमर्श संसदीय लोकतंत्र का अहम हिस्सा है। 2013 में अमरीकी सीनेट में सीनेटर टेड क्रूज को ओबामाकेयर के विरोध में अपनी बात रखने के लिए 21 घंटे 19 मिनट मिले। संसदीय कार्यवाही में ऐसे विचार-विमर्श से विधायिका की गुणवत्ता में सुधार आता है, साथ ही सर्वसम्मति भी बनती है। भारत में कृषि कानून निरसन अधिनियम 2021 को दोनों सदनों में कुल मिलाकर 8 मिनट (तीन मिनट लोकसभा और पांच मिनट राज्य सभा) में पारित कर दिया गया। संविधान प्रारूप तय करने के लिए भारत की संवैधानिक सभा की बहस भी दिसंबर 1946 में शुरू हुई जो 166 दिन तक चली और जनवरी 1950 में पूरी हुई।
आदर्श रूप में संसदीय परंपराएं तभी सुरक्षित व मजबूत बनी रहेंगी, जब सांसद स्वतंत्र रूप से वोट दे सकें और बहस प्रक्रिया पुनर्जीवित की जाए। इसके अतिरिक्त विषयों पर गहन अध्ययन के लिए सांसदों के पास संसाधनों की बेहद कमी है। एक सांसद को एक विधायी सहायक की सेवाएं लेने के लिए 40,000 रुपए प्रतिमाह का भत्ता मिलता है। यूके में सांसदों का औसत वेतन 84,144 पाउंड है जबकि 2021 में उन्हें विधायी सहायक नियुक्त करने के लिए करीब दो लाख पाउंड मिले। भारत में सरकार को चाहिए कि संसदीय अनुसंधान के लिए फंड बढ़ाए। संसदीय लोकतंत्र में सरकार की जवाबदेही तय होनी चाहिए। वेस्टमिंस्टर में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को हर बुधवार हाउस ऑफ कॉमन्स में दोपहर 12 से 12.30 के बीच सांसदों के प्रश्नों के उत्तर देने होते हैं। उन्हें पहले से सवालों के बारे में पता नहीं होता। नतीजा द्ग गंभीर खोजी सवाल और हिचकिचाहट भरे जवाब। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान भी यह सिलसिला वर्चुअली जारी रहा। भारत में तब प्रश्नकाल नहीं रखा गया। यहां ऐसी परम्परा पर कभी कभार ही विचार हुआ है और प्रधानमंत्री-मंत्रियों को अक्सर पहले से ही सवाल बता दिए जाते हैं।
जवाबदेही तय करने का एक जरिया संसदीय समितियां हैं। अमरीका में संसद समितियां कानूनों की समीक्षा, सरकारी नियुक्तियों की पुष्टि, जांच और सुनवाई करती हैं। यूके में 2013 में हाउस ऑफ कॉमन्स ने एक जनभागीदारी तंत्र विकसित किया और ड्राफ्ट बिल पर वेब पोर्टल के जरिए टिप्पणियां आमंत्रित कीं। भारत में दीर्घकालिक विकास योजनाएं आम तौर पर संसदीय समीक्षा का विषय नहीं होतीं, सिवाय वार्षिक योजना व्यय को मंजूरी देने के। जब-जब ऐसी समितियों ने पहल की है, असर भी दिखा है। न्यूजीलैंड में हर विधेयक समीक्षा के लिए एक चयन समिति को भेजा जाता है। आदर्श रूप में, हमारे देश में भी विभाग संबंधी स्थायी समितियां हैं, जिन्हें विधेयकों पर जनता व परामर्शदाताओं की राय लेने का अधिकार है (पीआरएस लेजिस्लेटिव 2011)।
संसदीय लोकतंत्र का एक और पक्ष है सांसदों को पहल करने देना। कभी-कभी यह प्राइवेट मेम्बर बिल के रूप में हो सकता है। 2019 से यूके में ऐसे 20 व कनाडा में ऐसे छह विधेयक पारित हुए। भारत में 1952 से अब तक दोनों सदनों में केवल 14 ऐसे विधेयक पास हुए (छह पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू के कार्यकाल में)। सीमित संख्या में ही सही, ये बिल अहमियत रखते हैं। हमें व्यवस्था करनी होगी कि प्राइवेट मेम्बर बिल न केवल सुने जाएं, उन पर वोटिंग भी कराई जाए। भारत में संसद के बाहर संसदीय क्षेत्र में बदलाव लाने के लिए भी सांसदों के पास सीमित अवसर हैं। एमपीलैड योजना पिछले डेढ़ साल से स्थगित है, जिससे कथित तौर पर सरकार को 6320 करोड़ रुपए की 'बचत' हो रही है। योजना के तहत यदि हर संसदीय क्षेत्र की हर लोकैलिटी पर बराबर खर्च किया जाए तो मात्र 15 हजार रुपए के ही कार्य संभव हैं। जबकि ऐसी योजनाएं संसदीय क्षेत्र के विशिष्ट विकास की राह खोलती हैं, जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है। इसके विपरीत, बहस को दबाने व सांसदों के लिए पहल के अवसर हटाने का संस्थागत तंत्र दलबदल विरोधी कानून के रूप में मौजूद है, जिसके तहत पार्टी व्हिप का पालन न करने पर सांसद को सीट भी गंवानी पड़ सकती है। इस कानून के चलते पार्टी सिस्टम ही जनप्रतिनिधि का पक्ष एक सांसद के रूप में तय करता है। गौर करें: देश की 543 लोकसभा सीटों में से 250 पर वे नेता हैं, जो स्वयं को किसान बताते हैं, पर इनमें से शायद ही कोई 'किसान' तीन कृषि कानूनों पर संसद में बहस के दौरान कुछ कह पाया। देश के इस महत्त्वपूर्ण मंच पर अंतरात्मा की आवाज पर वोट देना दुर्लभ हो गया है। दलबदल विरोधी कानून अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहा। इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो सांसद सुझाव देने वाले व चर्चा करने वाले कानून निर्माता नहीं कहलाएंगे।
भविष्य के लक्षण भी विकट दिख रहे हैं। देश में एक सांसद औसतन 25 लाख नागरिकों का प्रतिनिधित्व करता है। यह संख्या कई देशों की आबादी से अधिक है। भले ही 2026 तक लोकसभा सीटों की संख्या 1000 से अधिक होने की संभावना है, पर सांसदों को बोलने का पर्याप्त समय मिलेगा, यह मुश्किल लगता है। 1956 में फिरोज गांधी ने संसदीय कार्यवाही की कवरेज के लिए प्रेस स्वतंत्रता संबंधी निजी विधेयक पेश किया था। इसे बाद में संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन संरक्षण) अधिनियम 1956 का नाम दिया गया। संसद और उसके सदस्य एक जवाबदेह सरकार चलाने के लिए होते हैं। हमारी संसद को बदलती आकांक्षाओं, बेचैनी और नए भारत की महत्त्वाकांक्षा का प्रतिबिम्ब होना चाहिए जो जवाबदेह हो और कार्यपालिका के अधीन न हो। संसद को जांच का सच्चा केंद्र होना चाहिए।