scriptमानवीय हुआ आधार | Aadhar and its restrictions on common mans life | Patrika News

मानवीय हुआ आधार

locationजयपुरPublished: Oct 06, 2018 03:55:04 pm

भारत जैसे देश में खोज तो उस कीमियागर की करनी है जो इसकी भिन्नताओं को सम्मानपूर्वक संभालते हुए इसकी एकता के सूत्र खोजे-गढ़े और मजबूत करे।

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– कुमार प्रशांत, लेखक और कार्यकर्ता

आधार बनाया प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो एक सवर्मान्य अर्थशास्त्री थे और राष्ट्र की आर्थिक बुनियाद मजबूत करने में लगे हुए थे, आधार को सजाया नंदन नीलेकणि ने जो अर्थशास्त्री तो नहीं थे लेकिन व्यापार, टेक्नोक्रेसी और आर्थिक जरूरतों की अच्छी समझ रखते थे, तो आधार का राजनीतिक इस्तेमाल शुरू किया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो न तो अर्थशास्त्री हैं, न ही टेक्नोक्रेट।
इसी तरह आधार का आधार तोड़ा उन लोगों ने जिन्हें चापलूसी के अलावा कुछ नहीं आता, आधार के खतरों से आगाह किया उन तमाम विचारकों-पत्रकारों और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जो लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा में जुटे रहते हैं, तो आधार की हदबंदी की देश की सर्वोच्च अदालत ने जिसे सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकता और लोकतंत्र की बुनियादी जरूरतों के बीच संतुलन साधना होता है। तो कह सकते हैं कि आधार ने हमें खुद को और अपनी व्यवस्था को जांचने का एक नया आधार दिया।
बात शुरू तो वहां से हुई थी जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्वीकार किया था कि हम एक ऐसी भ्रष्ट व्यवस्था चला रहे हैं जो देश के विकास के लिए खर्च करने को मिले 100 पैसे में से 90 पैसे खुद खा जाती है। इस स्वीकारोक्ति की चर्चा तो बहुत हुई, पर रास्ता कुछ मिला नहीं। 2009 में योजना आयोग ने यूआइडीएआइ की सूचना जारी की और नंदन नीलेकणि को अध्यक्ष बनाया। देश ने तो यही माना कि कार्डों से खेलने वाले देश को एक और कार्ड खेलने को दिया जा रहा है। मनमोहन सिंह सरकार ने देश को कभी नहीं बताया कि क्या आधार के बाद देश को दूसरे किसी कार्ड की जरूरत नहीं रह जाएगी? क्या यह कार्ड नागरिकता की हमारी पहचान का एकमात्र आधार बनेगा?
आधार की बात सामने आते ही निजता के अधिकार व इसके उल्लंघन की संभावना की चर्चा ने जोर पकड़ा जिसकी रोशनी में नंदन नीलेकणि ने कुछ फेरबदल भी किए थे। मनमोहन सरकार ने अपने स्वभाव के अनुरूप धीरे-धीरे इसे जांचने-समझने व लागू करने की योजना बनाई थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद वर्तमान सरकार को इन कार्यक्रमों की दूसरी संभावनाएं समझ में आने लगीं और मनरेगा, आधार, सार्वजनिक राशन वितरण, सरकारी योजनाओं की धनराशि सीधे बैंक खातों में पहुंचाने का राजनीतिक लाभ सब जरूरी और अंधाधुंधी में कर डालने के काम बन गए। नोटबंदी, जीएसटी के मामले में भी एक चालाक हड़बड़ी दिखाई देती है।
आधार के साथ भी ऐसा ही किया जाने लगा। इससे जमा होने वाले अकल्पनीय आंकड़ों व निजी जानकारियों का राजनीतिक इस्तेमाल आम के आम, गुठलियों के दाम साबित होता दिखाई दिया। आधार अवसरवादी राजनीतिक पागलपन का आधार बन गया।
नारों के पीछे की मानसिकता कितनी खतरनाक हो सकती है, यदि इसे ठीक से समझना हो तो पिछले दिनों उछाले गए कुछ नारों को देखें द्ग एक देश: एक कर, एक देश: एक पहचान, एक देश: एक चुनाव, एक देश: एक कानून। सुनने में अच्छी लगने वाली यह नारेबाजी तब बहुत खतरनाक रूप ले लेती है, जब हम इसी सुर में एक देश: एक धर्म, एक देश: एक नेता, एक देश: एक पार्टी जैसे नारों की चीख सुनते हैं।
दुनिया का इतिहास गवाह है कि ऐसे नारे फासिज्म का रास्ता साफ करते आए हैं और धार्मिक उन्मादियों की जगह बनाते आए हैं। संघीय ढांचे ेवाली हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में ये नारे कहीं ठहरते ही नहीं हैं। भारत जैसे देश में खोज तो उस कीमियागर की करनी है जो इसकी भिन्नताओं को सम्मानपूर्वक संभालते हुए इसकी एकता के सूत्र खोजे-गढ़े और मजबूत करे।
सर्वोच्च न्यायालय ने आधार के मामले में इसी आधार को मजबूत किया है। उसने आधार का खौफनाक चेहरा किसी हद तक मानवीय बनाया है। उसने फिर से यह बात रेखांकित की है कि लोकतंत्र में लोक किसी तंत्र के हाथ की कठपुतली नहीं है। नागरिक के दायित्व भी हैं और मर्यादाएं भी हैं तो तंत्र के दायित्व और मर्यादाएं उससे कई गुना ज्यादा हैं और हर जगह, हर कसौटी पर तंत्र को इसे निभाना है, निभाते हुए दिखाई देना है।
अदालत का फैसला 4:1 के बहुमत से हुआ है। फैसला बहुमत से हो सकता है, न्याय बहुमत से नहीं होता है। इसलिए न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के फैसले पर देश की भी और अदालत की भी सावधान नजर रहनी चाहिए। हो सकता है कि कल आधार के बारे में देश को न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का आधार लेना पड़े। सरकार ने इसे जिस तरह धन विधेयक बना दिया, वह खतरनाक ही नहीं है, बल्कि सरकार की कुमंशा की चुगली खाता है। इसे अदालती आदेश से रोकना चािहए तथा बैंकों से लेकर सेवा क्षेत्र की तमाम संस्थाओं को आगाह करना चाहिए कि उनकी पहली और अंतिम प्रतिबद्धता ग्राहकों के साथ है, सत्ताधीशों के साथ नहीं।
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