इस सवाल का जवाब भी है। नगर निगम व दूसरे स्थानीय निकाय यदि अतिक्रमण होने ही न दें तो तोडऩे की नौबत आए ही क्यों? सब जानते हैं कि अतिक्रमण कोई एक दिन में नहीं होता। चोरी- छिपे नहीं बल्कि धड़ल्ले से और कई दिनों में जाकर होता है। जाहिर है नेताओं और अफसरों की मिलीभगत के बिना अतिक्रमण हो ही नहीं सकता। वैसे तो अतिक्रमण करने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के साथ ही उन दोषी अफसरों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए जिनकी निगरानी में अथवा शह पर ये अतिक्रमण हुए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल देने से इनकार करते हुए साफ कह दिया कि अदालत को राजनीति का अखाड़ा बनाने से बाज आना चाहिए। सवाल ये भी अहम है कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से याचिका लगाई गई, न कि प्रभावित पक्ष की तरफ से। राजनीतिक दलों को ऐसी याचिकाएं लगाने से दूर रहना चाहिए। चिंता की बात यह है कि चंद वोटों के लालच में राजनीतिक दल अदालतों का कीमती समय बर्बाद करने से परहेज नहीं करते। अतिक्रमण हटाने का काम शासन का है, इसमें अदालतों के दखल की जरूरत ही क्यों पड़े? लेकिन अतिक्रमण हटाने में भी आजकल राजनीति होने लगी है। किसी भी दल की सरकार क्यों न हो, अपनों को बचाने और परायों को फंसाने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करना परिपाटी-सा बन गया है।
बड़े शहरों में अतिक्रमण करना और करवाना एक व्यवसाय बन चुका है। करोड़ों के वारे- न्यारे होते हैं। दिल्ली के नगर निगमों पर पांच साल से भाजपा काबिज है। पुलिस भी उसके नियंत्रण में है। फिर अतिक्रमण होते हैं तो वह अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती। सभी पक्ष जिम्मेदारियों का निर्वहन करें तो न अतिक्रमण हों और न ही अदालतों को इनमें दखल देना पड़े।