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भवन निर्माण में स्थानीय वास्तुकला को अपनाएं

Published: Jun 28, 2023 09:40:56 pm

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Patrika Desk

स्थानीय वस्तुओं से भवन बनाने की स्थानीय वास्तुकला को फिर से अपनाने की जरूरत है। इसके लिए सामाजिक स्वीकार्यता पर काम करना होगा। पश्चिमी शैली में भवन निर्माण के दुष्परिणामों को देखते हुए भवन निर्माण का परंपरागत तरीका अपनाना आवश्यक हो गया है।

भवन निर्माण में स्थानीय वास्तुकला को अपनाएं
भवन निर्माण में स्थानीय वास्तुकला को अपनाएं
डॉ. कुशाग्र राजेन्द्र
पर्यावरण मामलों के जानकार

भारत में सीमेंट के उपयोग से पक्के घर बनाने का चलन सत्तर-अस्सी के दशक से तेजी से बढ़ा। इसके बाद भवन निर्माण की डिजाइन के अंतरराष्ट्रीयकरण की आंधी में ऐसे स्थानीय परंपरागत घर निर्माण के तरीके गायब हो गए, जो विभिन्न क्षेत्रों की मौसमी जरूरतों के अनुकूल परंपरागत रूप से हजारों वर्षों में विकसित हुए थे। मिट्टी की मोटी और कुचालक दीवारें, घर के बीच में आंगन, आंगन को घेरता और घर के बाहर चारों ओर छायादार बरामदा, दो स्तरों की खुली और जालीदार खिड़कियां, जिसमें ऊपर वाली खिड़कियां छोटी रोशनदान की शक्ल में, ये कुछ विशेषताएं थीं, भारत के घरों की। वैश्वीकरण की अंधी दौड़ में भवन निर्माण की सारी स्थानीय शैलियां पश्चिम के भवन निर्माण के तरीके की भेंट चढ़ गर्इं।
मौजूदा दौर जलवायु परिवर्तन का है, जिससे मौसम में व्यापक परिवर्तन हो रहा है। तापमान में वृद्धि के साथ -साथ हर मौसम भीषण रूप ले रहा है। शहरी क्षेत्रों में पश्चिमी तरीके से लोहा, सीमेंट, कंक्रीट और कांच आधारित घर निर्माण गलती साबित हो रहे हैं। गर्मी में ये बॉक्सनुमा घर जरूरत से ज्यादा तप रहे हैं। इनमें रहना या काम करना दुरूह होता जा रहा है। इसकी वजह से एयर कंडीशनर की जरूरत बढ़ रही है और उसी अनुपात में ऊर्जा की खपत भी बढ़ती है। एयर कंडीशनर के ज्यादा इस्तेमाल से गर्म हवा घरों के बाहर सड़क और गलियों को गर्म करती। परिणामस्वरूप हमारे शहर 'हीट आइलैंडÓ के केंद्र बन रहे हैं। इसके कारण शहरों का तापमान आसपास के मुकाबले पांच डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाता है। हमारे शहर धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगल के रूप में बदलते जा रहे हैं। साथ ही गली, फुटपाथ, पार्क समेत अन्य खुली जगहों का कंक्रीटीकरण हो रहा है। खुले स्थानों के पक्कीकरण के कारण शहरों में थोड़ी सी भी बारिश होने के बाद हमारे शहर तैरने लगते हैं। अब बारिश शहरों के लिए हर साल प्राकृतिक आपदा का रूप लेने लगी है। खुली जगह को पक्की करने की होड़ में हम यह भूल गए कि यह धरती बारिश के पानी को सोखती है और उसी से हमारा भू-गर्भ जल रिचार्ज होता था। सीमेंट और कंक्रीट निर्माण के लिए पहाड़ तोड़े जा जा रहे हैं। सीमेंट उत्पादन से सालाना वैश्विक कार्बन डाइऑक्साइड का लगभग 5 प्रतिशत तक उत्सर्जित होता है। रेत भी भवन निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, जिसके लिए नदियों में अवैध खनन हो रहा है। नतीजतन नदी तंत्र, भूमिगत जल, बहाव की दिशा और जल संग्रहण का संतुलन बिगड़ रहा। इससे बड़े स्तर पर पानी की समस्या सामने आ रही है।
पेरिस समझौते के आलोक में भवन और भवन निर्माण से कार्बन उत्सर्जन को 2030 तक आधा करने का लक्ष्य रखा गया है। दूसरी तरफ नेशनल कूलिंग प्लान के आंकड़ों के मुताबिक 2018 में केवल 8 प्रतिशत भारतीय घरों में एयर कंडीशनर की सुविधा थी, पर 2040 तक ऐसे घरों की संख्या बढ़ कर 40 प्रतिशत हो जाने का अनुमान है, जो भारत के 2070 तक 'जीरो इमिशनÓ का लक्ष्य हासिल करने के लक्ष्य की राह में बड़ी बाधा है। ऐसी परिस्थिति में भवन निर्माण, इसके इस्तेमाल और रखरखाव की प्रक्रिया में बिना आमूल-चूल बदलाव किए जलवायु परिवर्तन के वैश्विक और राष्ट्रीय लक्ष्य को हासिल करना संभव प्रतीत नहीं होता है। स्थानीय वस्तुओं से भवन बनाने की स्थानीय वास्तुकला को फिर से अपनाने की जरूरत है। इसके लिए सामाजिक स्वीकार्यता पर काम करना होगा। पश्चिमी शैली में भवन निर्माण के दुष्परिणामों को देखते हुए भवन निर्माण का परंपरागत तरीका अपनाना आवश्यक हो गया है।
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