2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल कर केन्द्र में बहुमत वाली एनडीए सरकार बनाई थी। कांग्रेस 2 और समाजवादी पार्टी 5 सीटें ही ले पाए थे। मायावती की बसपा का तो खाता ही नहीं खुला था। भाजपा समर्थित अपना दल दो सीटों पर विजयी रहा था। तब सपा और बसपा अलग थीं। इसका खामियाजा भी उन्हें झेलना पड़ा। पिछले साढ़े चार साल में दोनों को समझ आ गया कि यदि गठबंधन करके लड़ेंगे, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं। फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव में दोनों मिलकर लड़े, तो योगी और मौर्य को उनके ही क्षेत्र में मात दे दी। इस गठबंधन ने मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए कांग्रेस और राहुल गांधी के महागठबंधन करने के इरादों को भी चकनाचूर कर दिया। कांग्रेस को मजबूरी में ऐलान करना पड़ा है कि वह राज्य की सभी 80 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। हालांकि उसे पता है कि सपा और बसपा के बगैर राज्य में पार पाना बहुत ही मुश्किल होगा। इस बीच अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव ने अपनी नवगठित प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) का कांग्रेस के साथ गठबंधन का पासा फेंका है। कांग्रेस इसको तवज्जो देगी, कहना मुश्किल है, क्योंकि सपा से अलग होने के बाद शिवपाल भी हाशिये पर ही हैं। ‘बुआ-भतीजे’ की जोड़ी ने लोकसभा ही नहीं, विधानसभा चुनावों तक गठबंधन जारी रखने की घोषणा की है। दोनों जानते हैं कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड में उनका गठबंधन यदि कुल मिलाकर लोकसभा की 50-60 सीटें जीत जाता है, तो फिर केन्द्र में अगली सरकार उनके बिना बनाना किसी भी दल या गठबंधन के लिए असंभव ही होगा। कांग्रेस नीत यूपीए और भाजपा नीत एनडीए हर हाल में एक दूसरे को सत्ता से बाहर रखने की कोशिश करेगा। ऐसे में ‘तीसरे’ के हाथ सत्ता की चाबी लग सकती है।
सपा-बसपा गठबंधन की नीति केन्द्र और राज्य दोनों ही जगह मिलकर राज करने की लगती है। कांग्रेस-भाजपा की मजबूरी से वे भलीभांति परिचित हैं। कर्नाटक का उदाहरण सामने है। यदि 2014 में उत्तर प्रदेश में पड़े वोटों पर नजर डाली जाए तो सपा-बसपा और रालोद को 42 सीटों पर भाजपा से ज्यादा वोट मिले थे। पिछले पांच सालों में मोदी का करिश्मा भी कम हुआ है, तो नोटबंदी, जीएसटी और महंगाई ने लोगों का एनडीए से मोहभंग किया है। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शिकस्त इसका प्रमाण है। तेलुगुदेशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू और कांग्रेस ने मिलकर भाजपा के खिलाफ महागठबंधन बनाने का अभियान भी छेड़ा था, लेकिन बिहार में लालू यादव के राजद और शरद पवार की पार्टी के अलावा कोई बड़े दल से सकारात्मक संकेत नहीं मिले। उड़ीसा के नवीन पटनायक ने प्रस्ताव नामंजूर कर दिया जबकि बंगाल में ममता बनर्जी असमंजस की स्थिति में हैं। मायावती और अखिलेश यादव के नए गठबंधन में राष्ट्रीय स्तर पर कौन जुड़ता है, यह देखना रोचक होगा। क्योंकि इस गठबंधन के बाद यह तो एक तरह से तय हो गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसी एक दल या गठबंधन को बहुमत मिलना मुश्किल है। ‘बुआ-भतीजे’ की काठ की हांडी चढ़ तो गई है अब इसमें क्या पकेगा, यह तो आगामी चार माह में सामने आ जाएगा। देश में राजनीतिक अनिश्चितता बन सकती है। विकास और राम मंदिर, तीन तलाक जैसे मुद्दे फिलहाल तो इस गठबंधन के आगे पिछड़ते दिखाई दे रहे हैं।