भारतीय राजनीति ऐसे दौर से पहले भी गुजर चुकी है, जब कांग्रेस का दबदबा पूरे देश में था और विखंडित विपक्ष कांग्रेस के वर्चस्व को रोकने में लगातार असफल रहा। यह बात सही है कि मौजूदा माहौल में भी नरेन्द्र मोदी अथवा भाजपा के बढ़ते कद और वर्चस्व को रोकने के लिए कांग्रेस ने कई राज्यों में गठबंधनात्मक प्रयासों का सहारा लिया। कुछ राज्यों में हुए उप-चुनाव और कुछ अन्य में हुए आम चुनाव में गठबंधन राजनीति की सफलता ने स्पष्ट कर दिया है कि भाजपा भी अजेय नहीं है।
लेकिन ऐसी राजनीति की सबसे बड़ी कमजोरी इसकी अनिश्चितता होती है। क्षेत्रीय दल कमोबेश अपनी ताकत को अधिक आंकते हैं और राष्ट्रीय दल तय नहीं कर पाते कि कहां क्षेत्रीय दलों से हाथ मिलाया जाए और कहां नहीं। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर, इन दिनों पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के विरोध में गठबंधन के निर्माण में अलग-अलग तर्क स्वरूप और प्रतिमान देखने को मिल रहे हैं। इनमें से कुछ सुसंगत प्रतीत होते हैं, तो कुछ असंगत।
राजस्थान की राजनीति में भी कुछ इस तरह की सुगबुगाहट देखी जा सकती है। दीर्घकाल से राजस्थान की राजनीति भाजपा व कांग्रेस के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही है। बसपा, माकपा व अन्य दलों ने भी आंशिक उपस्थिति हमेशा दर्ज कराई है। राजस्थान में भाजपा को फिर सत्ता में आने से रोकने के लिए गठबंधन के दावों और प्रयासों की चर्चा राजनीतिक गलियारों में होने लगी है। पहले की तरह बसपा और वामदल तो मैदान में हैं ही, सबकी नजर भाजपा से अलग होकर भारत वाहिनी पार्टी बना चुके घनश्याम तिवाड़ी और भाजपा से किनारा कर चुके नेता हनुमान बेनीवाल पर है। आम आदमी पार्टी भी मैदान में है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को लगता है कि प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर है और इसका फायदा उसको मिलेगा। ऐसे में यह सवाल है कि क्या कांग्रेस के लिए अन्य गैर-भाजपा दलों के साथ गठबंधन करना फायदेमंद होगा? शायद नहीं। यह सही है कि राज्य स्तर के चुनावों में केन्द्रीय स्तर पर हुए गठबंधन ज्यादा प्रभावी नहीं होते। क्योंकि परिस्थितियां अलग होती हैं। ऐसे में राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की क्षमता का आकलन किए बिना किसी तरह के कयास लगाना व्यर्थ होगा।
राजस्थान की राजनीति को देखें तो स्पष्ट है कि यह उन चुनिंदा राज्यों में शामिल हैं, जहां का आम मतदाता स्थानीय अथवा क्षेत्रीय दलों के प्रभाव में आए बिना दो प्रमुख राजनीतिक दलों, कांग्रेस व भाजपा, में ही विकल्प तलाशता आ रहा है। यानी भाजपा से खफा हुआ तो कांग्रेस को और कांग्रेस से खफा हुआ तो भाजपा को अपना समर्थन देता है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि राजस्थान का मतदाता परंपरागत तौर पर स्थानीय, जातिगत, आर्थिक अथवा राष्ट्रीय मुद्दों के सम्बन्ध में कमोबेश किसी तीसरे विकल्प को बहुत ज्यादा अवसर नहीं देता। राजस्थान में वर्ष 1991 से 2014 तक के विधानसभा व लोकसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण करें तो कुल मतदान में से 80 से अधिकतम 92 फीसदी तक मत भाजपा व कांग्रेस को ही संयुक्त रूप से प्राप्त हुए हैं। इसी तरह वर्ष 1993 से 2013 तक हुए पांच विधानसभा चुनावों में भी इन दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों ने संयुक्त रूप से सत्तर से अस्सी फीसदी तक मत सदैव प्राप्त किए हैं।
जाहिर है कि राष्ट्रीय राजनीति और अन्य राज्यों से प्रभावित हुए बिना राजस्थान के मतदाताओं ने इन दो दलों में ही विश्वास व्यक्त किया है। यह बात भी सच है कि राजस्थान में पिछले सालों में अन्य राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने भी उपस्थिति दर्ज कराई है, लेकिन ज्यादा प्रभावी रूप में नहीं।
चुनावी प्रक्रिया में निर्दलीय का संदर्भ देखें तो दो तथ्य स्पष्ट रूप से व्यक्त किए जा सकते हैं। पहला यह कि राजस्थान के अधिकांश मतदाता दो दलीय प्रतिबद्धता से आबद्ध हैं। यही कारण है कि विभिन्न चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार बड़ी संख्या में खड़े होते हैंं, लेकिन कुछ ही जीत पाते हैं। इनमें भी अधिकतर दोनों प्रमुख दलों के बागी ही होते हैं। ऐेसे में प्रदेश में अब तीसरे विकल्प की चर्चा तो शुरू हुई है, लेकिन यह कितना मजबूत होगा और क्या स्वरूप लेगा, यह देखना है। फिलहाल गठबंधन कौन-किससे करने वाला है, यही स्पष्ट नहीं है।
(मोहनलाल सुखाडिय़ा विश्वविद्यालय, उदयपुर में राजनीति शास्त्र का अध्यापन। सीएसडीएस से संबद्ध।)