अब रिटर्न भरने वाला फार्म एक पेज का कर दिया गया है। महीने में तीन बार की जगह एक बार ही रिटर्न दाखिल करना होगा। व्यापारी यही सलाह पहले भी दे रहे थे लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। गलतियों पर पर्दा डालने से समस्याएं बढ़ती हैं और अच्छा-भला कानून भी शक के दायरे में आ जाता है। सरकार एक तरफ गुड गवर्नेंस की बात करती है, तो दूसरी तरफ व्यापारियों पर फार्म भरने की जटिलताएं थोपने से भी बाज नहीं आती। जीएसटी लागू भले एक साल पहले हुआ लेकिन इस पर पिछले तीन दशक से विचार-विमर्श चल रहा था। राजीव गांधी सरकार के समय 1986 में सबसे पहले इसकी अवधारणा सामने आई थी। तब से लेकर आज तक शायद ही किसी दल अथवा व्यापारिक संगठन ने इसका विरोध किया हो। विरोध था तो इसको लागू करने के तरीके और टैक्स स्लैब को लेकर। सबसे ऊंचे स्लैब 28 फीसदी में शुरुआती दौर में 200 से अधिक वस्तुएं शामिल थीं, जो अब घट कर 30 के करीब रह गई हैं। इस पर भी विचार करके टैक्स स्लैब की संख्या को दो या तीन तक सीमित किया जा सकता है। यही वे सवाल हैं, जिन्हें व्यापारी वर्ग समय-समय पर उठाता रहा है।
जीएसटी परिषद की अगली बैठकों में पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने पर भी विचार होना चाहिए। पेट्रोल-डीजल की आसमान छूती कीमतों ने आज आम आदमी को परेशान कर रखा है। सरकार यदि आम आदमी के लिए अच्छे दिन लाना चाहती है तो रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुओं पर करों को तर्कसंगत बनाने की पहल करनी होगी। जीएसटी के उद्देश्यों की पूर्ति भी तभी हो पाएगी। एक चर्चा यह भी है कि जीएसटी में बदलाव सरकार अगले साल चुनाव को देखते हुए कर रही है। तब ही तो व्यापारी वर्ग के कई सुझाव जो पहले दरकिनार कर दिए गए थे, उन पर सरकार अब विचार कर रही है। जीएसटी जैसे अहम मसले को चुनावी नजरिए से देखना कतई उचित नहीं कहा जा सकता। हां, इतना जरूर है कि अब भी जीएसटी परिषद को कई विसंगतियों पर समय रहते विचार करना चाहिए। सिर्फ विरोध के स्वर उठें तब ही सुधार की कवायद शुरू हो, यह बात ठीक नहीं।