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आर्ट एंड कल्चर : नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में

locationनई दिल्लीPublished: Jun 25, 2021 10:45:46 am

प्रस्तुति से कलाओं को प्रोत्साहन तो मिलता है, पर क्या इनसे नया श्रोता या दर्शक वर्ग खड़ा हो रहा है

आर्ट एंड कल्चर : नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में

आर्ट एंड कल्चर : नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में

डॉ. राजेश कुमार व्यास, (कला समीक्षक)

भारतीय कलाओं पर जब भी विचार करता हूं, डॉ. आनंद केंटिश कुमारस्वामी सबसे पहले याद आते हैं। वह स्थापित करते हैं, ‘नवीनता नवीन बनाने में नहीं, नवीन होने में है।’ यह सच है। शास्त्रीय गायन, वादन में मूल राग वही है जो बरसों से हम सुनते आए हैं, फिर भी इन शास्त्रीय कलाओं में कलाकार सदा प्रस्तुति में नवीन करता है। इस नवीन में ही रसानुभूति हैं। फिर से कुछ सुनने, फिर से कुछ गुनने की। भारतीय दर्शन में कलाओं को शुद्ध रूप से जीवन से अभिहित किया गया है। तो फिर क्या यह विचारणीय नहीं, कि हम अपनी शास्त्रीय कलाओं की नवीनता के उस मूल को कितना बचाए रख पा रहे हैं?

मुझे लगता है, कुछेक लोकप्रिय कलाओं को छोड़ बहुतेरे स्तरों पर हम हमारी सांस्कृतिक कलाओं से लगातार दूर और दूर हुए जा रहे हैं। कभी राजस्थान के मांगणियारों, लंगा कलाकारों का लोक संगीत धोरों की अनूठी रेत राग से मेल कराता कानों में शहद घोलता था। प्रयोग करने और देखादेखी के चक्कर में सूफी संगीत, लोक संगीत बनता जा रहा है। इसी तरह शास्त्रीय संगीत के स्वर भी बहुत से स्तरों पर फ्यूजन में कनफ्यूज हो रहे हैं। शास्त्रीय नृत्यों को कोरियोग्राफ्री के नाम बिगाड़ शारीरिक लयकारी में तब्दील किया जा रहा है। चित्रकला में इंस्टालेशन के नाम पर मनमानी हो ही रही है। सोचता हूं, ऐसा ही रहा तो कलाओं का हमारा मूल क्या कुछ बचा भी रहेगा! शास्त्रीय कलाओं के आयोजन से ही क्या हम हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को मूल रूप में सहेज पाएंगे? शास्त्रीय कलाओं के अपसंस्कृतिकरण, अरूपीकरण को क्या इससे रोका जा सकता है?

शास्त्रीय संगीत, नृत्य और लोक कलाओं के प्रदर्शन, प्रस्तुति से कलाओं को प्रोत्साहन तो मिलता है, परंतु इतना ही सच यह भी है कि इनसे नया कोई श्रोता वर्ग, दर्शक वर्ग खड़ा नहीं हो रहा है। इनके साथ कलाओं की सहज समझ, जानकारियां, रसिकता के लिए भी कुछ नया होगा तभी कला रसिक कलाओं से अधिकाधिक जुड़ पाएंगे। उस्ताद अमीर खान, पं. भीमसेन जोशी, पं. जसराज, किशोरी अमोणकर ने वही राग गाए हैं जो उनसे पहले गायक गाते आए हैं, पं. बिरजू महाराज ने वह नृत्य किया जो पहले होता रहा परंतु इन सबने अपने को मूल में भी निरंतर प्रस्तुति की नवीनता में साधा, पुनर्नवा किया। शास्त्रीय कलाओं को बचाने, उनके संरक्षण का यही मूल मंत्र है।

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