scriptशब्दों का दरवेश: सरलता का शिखर | Art and Culture : peak of simplicity in siddheshwar sen | Patrika News

शब्दों का दरवेश: सरलता का शिखर

locationनई दिल्लीPublished: Sep 24, 2020 03:22:52 pm

Submitted by:

shailendra tiwari

लोक कलाकार सिद्धेश्वर सेन की रूह माच में कुछ ऐसी रमी की जीवन इसी में गुजर गया। वे अब दुनिया में नहीं हैं। जीवित होते तो सौ बरस पूरे कर रहे होते।

art and culture

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आत्म निर्भरता का आलाप इन दिनों शबाब पर है। गुहार जड़ों की ओर लौटने की है। ऐसे में यह जरूरी है कि उन किरदारों को भी याद किया जाए, जो आत्मनिर्भर कर्मयोगी की मिसाल बन गए। फिलहाल जिक्र माच के मंच पर तमाम उम्र गुजार देने वाले लोक कलाकार सिद्धेश्वर सेन का। नश्वर दुनिया में वे अब नहीं हैं। जीवित होते तो सौ बरस पूरे कर रहे होते।

हाल ही केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से सेन की बेटी कृष्णा वर्मा ने मालवा कला केन्द्र उज्जैन के संयोजन में हफ्ते भर का एक स्मृति प्रसंग किया। वक्ताओं ने सिद्धेश्वर सेन और लोक नाट्य शैली माच की आपसदारी की चर्चा की। प्रसंगवश यह उल्लेख जरूरी है कि 1993 में संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली ने सेन को राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए चुना था और इंदौर जिले की राऊ तहसील के छोटे से गांव रंगवासा के रहवासी माच के इस बावरे फनकार के सीने पर राष्ट्रपति ने सम्मान का मेडल लगाया था।
लेकिन आत्मस्तुति के रोमांच और उत्कर्ष की आसमानी इच्छाओं से फासला रखने वाले इस खांटी मालवी का मन उन मंडलियों के आस-पास भटक रहा था, जो ढाई सौ बरस पुरानी माच की विरासत का परचम थामे जनता की आवाज को पुरजोर करने के एक बड़े अभियान पर निकल पड़ीं। गीत, संगीत, नृत्य, संवाद और अभिनय के रोचक ताने-बाने में ऐतिहासिक नायकों के आदर्शों का बखान और अपने समय की विसंगतियों पर कटाक्ष करते माच के खेल-तमाशे के आसपास हजारों का हुज़ूम उमड़ पड़ता। रात-रात भर सिद्धेश्वर की रची रंगतों की महफिल जमतीं और दर्शक निहाल हो उठते। सेन बताते थे कि उनके पिता ने लाख चाहा कि बेटा पुश्तैनी धंधे में मन लगाए, लेकिन उनकी रूह माच में कुछ ऐसी रमी की जीवन इसी में गुजर गया।

गौर करने की बात यह है कि सिद्धेश्वर सेन ने यह सब आत्म निर्भरता पर अडिग रहकर किया। माच प्रदर्शन की चली आ रही परंपरा में नए प्रयोग कर उसे मौजूं बनाया। अनेक नई रंगतें लिखीं। उन्हीं की पहल पर माच के मंच पर वर्जित स्त्री कलाकारों की आमद हुई। एक वह कठिन दौर भी आया जब उनके साथ प्राण-प्रण से सक्रिय उनकी पत्नी ने माच के मोह में अपने गहने तक बेच दिए। बहरहाल, वक्त की धूल को बुहारकर सिद्धेश्वर सेन और उनके गुजिश्ता दौर को याद करने की दरकार है। बेशक, एक उजला हस्ताक्षर नुमाया होगा और कहानियां बोल पड़ेगी।
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