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आर्ट एंड कल्चर : नई भाषा के साथ नए सिनेमा की दस्तक

locationनई दिल्लीPublished: Nov 27, 2021 10:25:32 am

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Patrika Desk

इस वर्ष की अधिकांश फिल्में चाहे वह मराठी की गोदावरी हो, या बोडो की बूम्बाराइड, अपने आप में संस्कृति की मुकम्मल पहचान देती हैं। उनके रहन-सहन, खानपान, पहनावे से लेकर उनके स्वभाव तक से हम जुड़ते हैं। इस तरह की अधिकांश फिल्मों में अपनी संस्कृति, अपनी समस्या, अपनी कहानी को अपनी भाषा में अभिव्यक्त करने की एक जिद दिखी।

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नई दिल्ली। सिनेमाघरों के खुलने के बाद जहां हिंदी सिनेमा ‘सूर्यवंशी’ की सफलता के साथ अपनी खास शैली के प्रति आश्वस्ति की सांसें भर रहा है, वहीं गोवा में चल रहे इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया में भारत की क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में कथ्य, शैली और तकनीक के साथ अपनी देशज रचनात्मकता को एक अलग ही ऊंचाई पर ले जाने की जिद को साकार करती दिख रही हैं।
आंकड़ों की बात करें तो देश भर से आईं 220 फिल्मों में से जूरी द्वारा चयनित 24 फिल्मों में हिंदी से मात्र दो फिल्म थीं, जबकि तमिल और तेलुगू जैसी स्थापित इंडस्ट्री से एक-एक फिल्में दिखाई गईं, जिसमें एक तो ‘कूजंगल’ थी, जिसे ऑस्कर की ऑफिशियल एंट्री के रूप में भेजा गया है।
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इसके बरक्स मराठी से सबसे अधिक 5 फिल्में थीं, जबकि बांगला और कन्नड़ से चार-चार। पूर्वोत्तर से तीन फिल्में चयनित थीं, और कमाल यह कि इनमें असमिया और मणिपुरी की फिल्म नहीं थी, जिस भाषा में आमतौर पर फिल्में बन रहीं हैं, इनमें एक फिल्म दिमिसा भाषा की थी, जबकि एक बोडो और एक मिसिंग में थी।
हममें से कई लोगों ने शायद इन भाषाओं का नाम भी नहीं सुना हो। इन फिल्मों को देखते हुए बस यही लग रहा था, सिनेमा साधन और सुविधा से नहीं, जिद और सरोकार से भी बनती है। बल्कि कह सकते हैं, यही सिनेमा है जो सिनेमा को, सिनेमा होने के मायने देती है, सिनेमा तकनीक के सहज होने को सार्थकता देती है।
मुट्ठी भर बोलने वाले लोग, न स्क्रीन की चिंता, न बॉक्स ऑफिस की। बस जिद की अपनी ही भाषा में अपनी ही कहानी अपनी ही जमीन पर दिखानी है।

इस वर्ष की इंडियन पैनोरमा की ओपनिंग फिल्म थी दिमिसा में बनी ‘सेमखोर’। सेमखोर समसा जनजाति के एक गांव का नाम है।
दिमिसा समसा जनजाति के बीच ही बोली जाती है, समसा अपने आप में संतुष्ट और खुश हैं, अपने दुख के साथ भी, अपनी मान्यताओं के साथ। उन्होंने हमारे कथित विकास को नकार दिया है। कहते हैं जब उनके बीच अस्पताल-स्कूल बनाए गए तो उन्होंने उन्हें ध्वस्त कर दिया। वे पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं।
असमिया की लोकप्रिय अभिनेत्री एमी बरुआ ने लंबे शोध के बाद इस फिल्म को वास्तविक लोकेशन पर शूट किया, पटकथा, निर्देशन भी एमी ने ही किया। मुख्य पात्र के लिए वास्तविक कलाकार नहीं मिले तो एमी ने खुद दो-तीन साल तक मुख्यधारा से अलग रह कर तैयारी की।
आश्चर्य नहीं कि ‘सेमखोर’ देखते हुए पलभर को अपने आपको कहानी से निकाल पाना संभव नहीं हो पाता। यह समर्पण विस्मित करता है।

वास्तव में ‘सेमखोर’ इंडियन पैनोरमा की कोई एक फिल्म नहीं, इस वर्ष की अधिकांश फिल्में चाहे वह मराठी की गोदावरी हो, या बोडो की बूम्बाराइड, अपने आप में संस्कृति की मुकम्मल पहचान देती हैं। उनके रहन-सहन, खानपान, पहनावे से लेकर उनके स्वभाव तक से हम जुड़ते हैं।
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इस तरह की अधिकांश फिल्मों में अपनी संस्कृति, अपनी समस्या, अपनी कहानी को अपनी भाषा में अभिव्यक्त करने की एक जिद दिखी।

यह भारत का नया सिनेमा है, जिसे पता है सिर्फ संवाद की भाषा बदलने मात्र से उस भाषा की फिल्म नहीं बन जाती, उस भाषा की संस्कृति को आत्मसात करना आवश्यक है। आश्वस्त करता है क्षेत्रीय फिल्मों का यह और भी क्षेत्रीय होते जाना।
विनोद अनुपम
(राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक)

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