उल्लेखनीय है कि सिनेमा पर लेखन के लिए अभी तक भारत में सिर्फ ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ के अंतर्गत सम्मानित किया जाता है। इसमें सभी भारतीय भाषाओं के लिए दो पुरस्कार मात्र हैं, एक फिल्म समीक्षा के लिए और दूसरा फिल्म पर लिखी पुस्तक के लिए। वास्तव में सिनेमा को सामाजिक जागरूकता और मानवीय सौंदर्यबोध के अनुरूप विकसित करने की जिस अपेक्षा से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार स्थापित किए गए थे, उस परंपरा के सूत्रधार की जवाबदेही सिनेमा पर लेखन ही उठा सकती है। बावजूद इसके पुरस्कार की यह श्रेणी किसी भी लोकप्रिय अवार्डों में अभी तक शामिल नहीं की गई है। शायद इसलिए कि हिन्दी सिनेमा ने कभी नहीं चाहा कि उसे एक प्रबुद्ध दर्शक मिले और उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप अपने को विकसित करने का उस पर दबाव बढ़े।
वास्तव में फिल्म पर लेखन एक नितान्त ही जटिल और गंभीर काम है। माना जाता है कि कमोबेश फिल्म पर लिखने वाले की समझ का स्तर पटकथा लेखक और निर्देशक के समकक्ष होना चाहिए, ताकि वह फिल्म बनने की प्रक्रिया में प्रवेश कर उसे वर्तमान सामाजिक मुद्दों और और सौंदर्यबोध की कसौटी पर परख सके। सवाल यह है कि इतने अध्यवसाय के साथ कोई ऐसे क्षेत्र में क्यों सक्रिय रहना चाहेगा, जिसकी प्रतिष्ठा ही न हो। न तो उनकी नजर में जिनके लिए वह लिख रहा होता है, न ही उनकी नजर में जिन पर लिख रहा होता है।
क्षेत्रीय सिनेमा के प्रोत्साहन के लिए संविधान के बाहर की भाषाओं में भी बन रही फिल्मों को सम्मानित किया जाता रहा है। बेहतर होता फिल्मों पर लेखन के लिए सभी क्षेत्रीय भाषाओं के लिए एक-एक रजत कमल तथा स्वर्ण कमल दिए जाते। समीक्षाओं से ही सिनेमा पर विचार करने वाली पौध को एक नई ऊर्जा मिल पाती है।
(लेखक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कला समीक्षक हैं)