आरम्भ में उन्होंने बुलंद अंदाज में बुल्ले शाह के कलाम गाए। चाहकर भी मन कहां उनका गान बिसरा सकता है! बहरहाल, सम और गीत से बना शब्द है संगीत। सम माने सहित और गीत का अर्थ है गान। कोयल की कूक सुनते हैं तो मन में मीठी-सी कोई हूक जगती है न! मन पाखी भी तो प्रकृति में विचरते बहुतेरी बार औचक गाने लगता है। हरिओम शरण को सुनते भी सदा ऐसा ही लगता है। सांसारिकता में होते भी लगता है कि मन उससे अलग अपने भीतर की तलाश में पहुंच गया है। भले वहां शास्त्रीयता नहीं है, परन्तु अंतर्मन संवेदनाओं की गहन अनुभूति है। कहें, सहज, सरल शब्दों में आप-हम सबका मन वहां जैसे गाता है। उनके सुरों में प्रभु अर्चना है। व्यर्थ किये का पश्चाताप है। …और है एक साधक की साधना।
भजन संगीत की हमारी समृद्ध परम्परा को हरिओम शरण और नरेन्द्र चंचल ने ही नहीं, मंदिरों में गाए जाने वाले आरती के लोक समूह स्वरों ने भी निरंतर समृद्ध किया है। मेरे अपने शहर बीकानेर के लक्ष्मीनाथजी मंदिर में गाई आरती ‘सांवरा सा ओ गिरधारी’ जगचावी है। इसलिए कि सच्चे अर्थों की सुर अभ्यर्थना वहां है। यह लिख रहा हूं और हरिओम शरण का गाया ‘निर्मल वाणी पाकर तुझसे, नाम न तेरा गाया’ मन में गूंजरित हो रहा है। शब्द भर नहीं, शब्दों के भीतर का गान यहां है। बहुत छोटा था तब। अलसुबह घर में दादी को हरजस गाते सुनता था। न जाने कहां से आए थे उनके हरजस के वे बोल। दादी को संगीत का ज्ञान कहां था! वह तो हरि स्मरण करती थी। ऐसा करते अपने को भी जैसे तब भूल जाती। उनकी उस तंद्रा को याद करते लगता है, संगीत के सच्चे सुरों में अपने को भूलना जरूरी होता है। हरिओम शरण का ‘दाता एक राम’, ‘प्रभु हम पे दया करना’, जैसे गाये भजन ऐसे ही हैं। प्रार्थना। अर्चना। याचना और मनुष्य होने के मामूलीपन का बोध! सच्चे मन की सुराजंलि! उन्हें सुनें, मन करेगा गुनें। गुनते ही रहें।