वैश्विक मानकों के अनुरूप हो कला पाठ्यक्रम
Published: Jan 24, 2023 09:16:01 pm
वर्तमान में कला शिक्षा को उतनी सामाजिक मान्यता नहीं है, जितनी मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि विषयों को है। प्राय: यह माना जाता है कि वही व्यक्ति कला विषय का चयन करता है जिसमें बुद्धि कौशल की न्यूनता होती है, परंतु गहनता से समझा जाए तो कलाकार एक अद्भुत तत्वज्ञानी और अन्वेषक होता है।


वैश्विक मानकों के अनुरूप हो कला पाठ्यक्रम
आर. बी. गौतम
कलाविद,
वरिष्ठ पत्रकार
कला की पूर्णता के लिए अभ्यास और वैचारिक क्रियापक्ष की आवश्यकता होती है। वर्तमान की कला पद्धतियों में मानसिक क्रियापक्ष मजबूत है। आज का कलाकार अपने आप को स्थापित करना चाहता है। इसके लिए वह निरंतर संघर्ष करता है। नवीनता की खोज में वह मानसिक व्यायाम करता रहता है। यदि शिक्षार्थी को शिक्षक उचित निर्देशन दें तथा अनुकूल वातावरण मुहैया करवाया जाए, तो निश्चय ही उसके मानसिक आयामों को विकसित होने का अवसर मिलेगा। कला शिक्षण संस्थाओं का दायित्व बन जाता है कि वे ऐसा माहौल बनाएं, जिससे कला का विद्यार्थी अपने गुणों में वृद्धि कर सके।
कला से जुड़ी शिक्षण संस्थाओं का मुख्य प्रयोजन कलाकार बनाना होता है। व्यक्ति में कलाकार गुण के प्रकाशन के लिए उसकी विचारात्मक प्रक्रिया के स्वतंत्र व्यवहार और विकास की आवश्यकता महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि कलाकार के चेतन मन की कलात्मक क्रियाओं की पूर्णता उसके विचारों में समाहित होती है। मात्र किसी विषयवस्तु को ज्यों का त्यों अपनी स्मृति में संचित कर उसी रूप में रूपांतरित कर देना मात्र कला नहीं मानी जा सकती है। कलाकार किसी विषय से संवेदित हुआ है और उसे अभिव्यक्ति के लिए चयनित किया है, तो निश्चय ही उसकी पृष्ठभूमि में उसके विचार की भूमिका रही है। वैचारिक विभिन्नता के कारण ही कला कर्म एक समान नहीं बन पाता है। अतएव कला शिक्षकों का यह दायित्व बन जाता है कि वे अपने विद्यार्थी के वैयक्तिक गुणों को कुंठित नहीं होने दें। कलाकार के कलाधर्म में दूसरे आवश्यक तत्वों की भांति स्मृति की भी सापेक्ष भूमिका रहती है। परंपरावादी और यथार्थवादी चित्रण में तो स्मृति की भूमिका महती होती है। सघन स्मृति के कारण वह हर बार प्रतीकों का पुनरावर्तन करता है और हम इस पुनरावर्तन को उसकी शैली मानने लगते हैं, परंतु यह कलाकर्म का दोष होता है। ऐसा लगता है कि कलाकार की दृष्टि नवीनता को ग्रहण करने में असमर्थ है। शिक्षक ही ऐसे दोष को समझ कर उसे निर्देशित कर सकता है। इसके साथ ही कल्पना और कला के अन्योन्याश्रित संबंधों की महत्ता को भी समझना उचित होगा। कला का वर्धन, कल्पना की वृद्धि और उसके परिष्करण पर निर्भर करता है। कल्पना का अति यथार्थवाद ही कला का प्राण है। कलाकार यथार्थ अनुभव के सत्य से साक्षात्कार कर एक नवीन जगत की सृष्टि करता है।
व्यक्ति के आंतरिक और बाह्य जीवन का समावेश व्यक्तित्व में होता है। संवेदनाएं, मूल प्रवृत्तियां, उद्वेग, प्रत्यक्ष ज्ञान, कल्पना, स्मृति और मानसिक शक्तियंों का समुच्चय ही व्यक्तित्व होता है। भारतीय मनीषियों ने इसे अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व के रूप में विभाजित तथा विश्लेषित किया है। कलाकार की स्ववृत्ति जब तक देश काल में विस्तार नहीं पाती है तथा रचना प्रक्रिया का सहयोग नहीं लेती है, तब तक कला अभिव्यंजना की श्रेणी में नहीं आती है। कला विद्यार्थियों के कृतित्व को पूर्णरूप से समझने के लिए उसके अंतर्मुखी और बहिर्मुखी व्यक्तित्व को समझकर निर्देशित करना आज की अनिवार्यता है। कला मात्र विषय का पुनरांकन नहीं है। उसमें कलाकार की सृजनात्मक क्षमता का समावेश भी आवश्यक है। प्रकृति और अपने वातावरण से वह कितना संवेदित हुआ है, उसके जीवन मूल्यों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए किन प्रतीकों और बिंबों का सहयोग लिया है, आदि की जानकारी उसकी कलाकृति के विश्लेषण से मिलनी चाहिए।
वर्तमान में कला शिक्षा को उतनी सामाजिक मान्यता नहीं है, जितनी मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि विषयों को है। प्राय: यह माना जाता है कि वही व्यक्ति कला विषय का चयन करता है जिसमें बुद्धि कौशल की न्यूनता होती है, परंतु गहनता से समझा जाए तो कलाकार एक अद्भुत तत्वज्ञानी और अन्वेषक होता है। वह वर्तमान को संरक्षित कर इतिहास और संस्कृति को पुष्ट बनाता है, परंतु आज शिक्षण संस्थाएं अपनी साख नहीं बना पा रही हैं। इनमें ऐसे पाठ्यक्रमों का भी अभाव है जो भूमंडलीकरण की विचारधारा की कसौटी पर खरा उतरें। ऐसे पाठ्यक्रमों को लागू करना जरूरी है, जो विश्व मानव मूल्यों की अवधारणा पर खरे उतर सकें। आज के प्रतियोगी वातावरण में एक कला विद्यार्थी अपने ज्ञान और संवेदनशीलता का परिचय देने में भी पूर्ण समर्थ होना चाहिए।